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योग-परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता
७५ भावनाओं के ऊपर भी भार दिया। अलबत्ता, ये भावनाएं योगसूत्र२८ और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र मे२६ तो है ही, परन्तु इन भावनाओं के विकास का मुख्य श्रेय महायानी परम्परा को है। जिस प्रकार हरिभद्र अपने दूसरे अनेक ग्रन्थों मे महायानी आदि इतर परम्पराअो के द्वारा पोषित धर्म के प्रवर्तक सदंशों को स्वीकार करते हैं और उनमे से एक उत्तम रसायन तैयार करते है, वैसे ही उन्होने योगशतक मे भी उक्त मैत्री
आदि चार भावनाओं को गूंथकर ° निवृत्ति एवं प्रवृत्ति धर्म का परस्पर उपकार करनेवाला आध्यात्मिक रसायन तैयार किया हो, ऐसा प्रतीत होता है ।
हरिभद्र की तुलना-दृष्टि योगशतक मे भी देखी जाती है। उन्होने योग का लक्षण या स्वरूप तीन दृष्टियो से उपस्थित करके तुलना का द्वार खोल दिया है। योग श्रेय की सिद्धि का दीर्घतम धर्मव्यापार है। इसमे दो अंश है : एक निषेधरूप और दूसरा विधिरूप । क्लेशो का निवारण करना यह निषेधाश, इससे प्रकट होनेवाली शुद्धि के कारण चित्त की कुशलमार्ग मे ही प्रवृत्ति यह विवि-अंश। इन दोनों पहलुओं को अपने मे समेटने वाला धर्मव्यापार ही वस्तुत' पूर्ण योग है । परन्तु इस योग का स्वरूप पतंजलि ने 'चित्तवृत्तिनिरोध'३१ शब्द से मुख्यतया अभावात्मक सूचित किया है, जबकि वौद्ध-परम्परा ने 'कुशलचित्त की एकाग्रता या उपसम्पदा'३२ जैसे शब्दों के द्वारा प्रधान रूप से भावात्मक सूचित किया है। ऊपर-ऊपर से देखनेवाले को ये लक्षण कुछ विरोधी से प्रतीत हो सकते है, परन्तु वस्तुतः इनमे कोई भी विरोध नही है । एक ही वस्तु के दो पहलुओं को गौरण-मुख्यभाव से बतलाने के ये दो प्रयत्न हैमानो यह भाव सूचित करने के लिए ही हरिभद्र ने पातंजल और बौद्ध-परम्परा द्वारा मान्य दोनो लक्षणो का तुलना की दृष्टि से निर्देश किया है और अन्त मे जैनसम्मत लक्षण मे उपर्युक्त दोनो लक्षणों का दृष्टिभेद से समावेश सूचित किया है। यह
२८. योगसूत्र १.३३ २६. तत्त्वार्थसूत्र ७.६ ३०. अहवा अोहेण चिय मणियविहाणाप्रो चेव भावेज्जा ।
सत्ताइएसु मित्ताइए गुणे परमसविग्गो।। सत्तेसु ताव मेत्ति तहा पमोय गुणाहिएसुति । करुणामज्झत्थत्त किलिस्समारणाविणीएसु ॥
-योगशतक, ७८-६ ३१ योगश्चित्तवृत्तिनिरोध । __ -योगसूत्र १२ ३२. सव्वपापस्स प्रकरण कुसलस्स उपसपदा। सचित्तपरियोदपन एत बुद्धान सासन ।
-धम्मपद, १४५