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समदर्शी श्राचार्य हरिभद्र
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धर्म से वंचित न हो। ऐसा कहकर वह गुरु, देव, अतिथि श्रादि के पूजा-सत्कार का तया दीनजनो को दान देने का विधान करते हैं । निवृत्ति की दिना में विशेष रूप से उन्मुख समाज में बहुत बार ऐसे प्रावश्यक धर्म की उपेक्षा होने लगती है । हरिभद्र ने शायद यह वस्तु तत्कालीन जैन समाज मे देखो और उन्हें लगा कि श्राव्यात्मिक माने जानेवाले निवृत्तिपरायण लोकोत्तर धर्म के नाम पर लौकिक वर्मो का उच्छेद कभी वांछनीय नही है । इसीलिए उन्होने समाज के धारक एवं पोपक सभी धर्मो का श्राचरण आवश्यक माना । वे जब गुरु, देव और अतिथि के चादर-मत्कार की बात कहते हैं, तब केवल जैन गुरु, जैन देव या जैन अतिथि को बात नही कहते । वे तो गुरु की बात विद्या, कला आदि विषयों को सिखाने वाले सभी गुरुवर्ग और मातापिता तथा अन्य प्राप्तजनो को उद्दिष्ट करके कहते हैं । इसी प्रकार देव की बात समाज में भिन्न-भिन्न वर्गों द्वारा पूजित सभी देवो को लक्ष्य मे रखकर करते हैं, तथा प्रतिथिवर्ग में वे सभी अतिथियो का समावेश करते हैं । वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में लौकिक धर्म सद्गुणपोपक और सद्गुणसंवर्धक बनते हैं। धीरे धीरे इन सद्गुणो के विकास के द्वारा लोकोत्तर धर्म अर्थात् श्राध्यात्मिकता के सच्चे विकास मे प्रवेश हो सकता है—यह बात उन्होने एक सरल दृष्टान्त द्वारा समझाई है । वे कहते हैं कि अरण्य में भूला पड़ा हुआ यात्री पगडण्डी मिलने से धीरे धीरे जैसे मुख्य मार्ग पर त्रा पहुँचता है, वैसे योग का प्रथम अधिकारी भी लोकधर्म का यथावत् पालन करते करते सुसंस्कार और विवेक को अभिवृद्धि से योग के मुख्य मार्ग मे प्रवेश करता है । २७ हरिभद्र से पहले ऐसा स्पष्ट विधान किसी जैनाचार्य ने शायद ही किया होगा ।
जैन-परम्परा अहिंसाप्रधान होने से उसका धार्मिक याचार ग्रहिंसा की नीव पर रचा गया है, परन्तु हिंसाविरमरण आदि पद अविकांगत. निवृत्तिसूचक होने से उनका भावात्मक पहलू उपेक्षित रहा है । हरिभद्र ने देखा कि हिसानिवृत्ति, असत्य - निवृत्ति आदि अणुव्रत या महाव्रत केवल निवृत्ति में ही पूर्ण नही होते, परन्तु उनका एक प्रवर्तक पहलू भी है । इसने उन्होंने जैन-परम्परा में प्रचलित हिंसा, अपरिग्रह जैमे व्रतो की भावना को पूर्ण रूप से व्यक्त करने के लिए मैत्री, करुणा श्रादि चार
२६. पढमस्स लोगघम्मे परपीडावज्जरणाइ श्रोहेण । गुरुदेवातिहिपुयाइ दोरगदारणाइ अहिगिच्च ॥
योगशतक, २५
२७ एवं चिय श्रवयारो नायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स । रो पपन्नट्टो वट्टाए वट्टमोयरइ ॥
न्योगगतक, २६