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________________ योग-परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता उसमे ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा प्रीति, भक्ति आदि तत्त्व, जो कि इतर योग-परम्परा मे बहुत प्रसिद्ध है, घटाये है। इतना ही नहीं, उन्होंने रूढिवादियो को यह भी सुना दिया है कि बहुजनसम्मति होना सच्चे धर्म अथवा तीर्थ का लक्षण नहीं है। सच्चा धर्म और सच्चा तीर्थ तो किसी एक मनुप्य को विवेकदृष्टि मे होता है। ऐसा कहकर उन्होंने लोकसंजा अथवा 'महाजनो येन गत स पन्था ' का प्रतिवाद किया है ।२५ यह एक प्राध्यात्मिक निर्भयता है। योगशतक योगशतक मे जैनो के धार्मिक जीवन को लक्ष्य मे रखकर विचार किया गया है । जिस प्रकार वैदिक-परम्परा मे ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास ये चार श्राश्रम है, उसी प्रकार यथार्थ जैन-जीवन के चार क्रम-विकासी विभाग है। जैनत्व जाति से, अनुवंग से अथवा किसी प्रवृत्तिविशेष से नही माना गया है, परन्तु वह तो आध्यात्मिकता की भूमिका के अपर निर्भर है। जब किसी व्यक्ति की दृष्टि मोक्षाभिमुख होती है तब वह जैनत्व की प्रथम भूमिका है । इसका पारिभाषिक नाम अपुनर्वन्धक है। मोक्ष के प्रति सहज श्रद्धा-रुचि और उसकी यथाशक्ति समझ-यह सम्यग्दृष्टि नाम की दूसरी भूमिका है। जब वह श्रद्धा-रुचि एवं समझ आंशिक रूप से जीवन मे उतरती है तब देशविरति नाम की तीसरी भूमिका होती है। इससे आगे जब सम्पूर्ण रूप से चारित्र अथवा त्याग की कला विकसित होने लगती है, तव सर्वविरति नाम की चौथी और अन्तिम भूमिका पाती है । इन चार भूमिकाग्रो मे साधक क्या करे, क्या सोचे और आगे प्रगति करने के लिए क्या प्रयत्न करे--यह योगशतक मे प्रतिपादित है। एक तरह से जैन परिभाषा मे जैन-परम्परा मे चला पानेवाला यह वर्णन है, जैसा कि इतर परम्पराओ के योग-ग्रन्थों मे उस-उस परम्परा की परिभाषा मे चला पाने वाला वर्णन मिलता है । अतः योगविंशिका एवं योगशतक इन दो ग्रन्थो के बारे मे इतना कहा जा सकता है कि इनकी रचना जैनपरम्परा के ढाचे पर हुई है, परन्तु हरिभद्र की जो असली सूझ है वह इन साम्प्रदायिक समझे जा सके ऐसे ग्रन्थो मे भी आये बिना नही रही। इनमे से दो-तीन बातो का निर्देश यहा पर्याप्त समझा जायगा। हरिभद्र कहते है कि जिसने अभी धर्म की सच्ची भूमिका का स्पर्श नहीं किया और जो केवल उस ओर अभिमुख है, वैसे प्रथम अधिकारी को लोक और समाज के बीच रहकर प्राचरण करने योग्य धर्म का उपदेश देना चाहिए, जिससे वह लौकिक २५ 'मूत्तूण लोगसन्न'-योगविंशिका, १६
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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