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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता जीव या सत्त्व ऐसे संकल्प के अधिकारी नही होते; कोई इससे मन्द अथवा कुछ निम्न कक्षा के संकल्प भी कर सकते है और उसके अनुसार सिद्धि भी प्राप्त कर सकते है।४५ हरिभद्र के कथन का मुख्य हार्द तो यह है कि संकल्प एक अक्षोभ्य प्रेरक बल है । वह जितना महान्, उतना ही मनुष्य महान् बन सकता है; परन्तु वे मानसिक विकास के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर यह भी सूचित करते है कि भिन्न-भिन्न साधको का संकल्पबल अल्पाधिक भी होता है ।४६ ऐसा निरूपण करते समय उन्होने जैनपरम्परामे सुविदित तीर्थंकर, ४७ गणधर४८ और मुण्डकेवली ४६ आदि योगियों की उच्चावच्च अवस्था का स्पष्टीकरण भी किया है।
(५) हरिभद्र ने धर्म के बारे मे पारमार्थिकता और व्यावहारिकता का अन्तर समझने के लिये सवको सदा काम मे आ सके ऐसी एक कसौटी रखी है। वे कहते है कि जो धर्म लोकाराधन या लोकरंजन के लिए पाला जाता है उसे लोकपंक्ति या
यत्सम्यग्दर्शन बोधिस्तत्प्रधानो महोदय । सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तषोऽन्वर्थतोऽपि हि ॥ वरवोधिसमेतो वा तीर्थकृद् यो भविष्यति । तथा भव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्व सता मत ॥
योगविन्दु २७०-७४ ४५. सासिद्धिकमिद ज्ञेय सम्यचित्र च देहिनाम् । तथा कालादिभेदेन वीजसिद्धयादिभावत ॥
-योगबिन्दु २७५ ४६ अनेन भवनगण्य सम्यग्वीक्ष्य महाशय । तथाभव्यत्वयोगेन विचित्र चिन्तयत्यसौ ॥
-योगबिन्दु, २८४ ४७. मोहान्धकारगहने ससारे दु खिता वत ।
सत्त्वा परिभ्रमन्त्युच्च सत्यस्मिन्धर्मतेजसि ॥ अहमेतानत. कृच्छाद् यथायोग कथचन । अनेनोत्तारयामीति वरवोधिसमन्वित ॥ करुणादिगुणोपेत परार्थव्यसनी सदा । तथैव चेष्टते धीमान् वर्धमानमहोदय. ॥ तत्तत्कल्याणयोगेन कुर्वन्सत्त्वार्थमेव स । तीर्थकृत्त्वमवाप्नोति पर सर्वार्थसाधनम् ॥
-योगविन्दु, २८५-८ ४८. चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनादिगत तु य. । तथानुष्ठानत. सोऽपि धीमान् गणधरो भवेत् ।।
योगविन्दु, २८६ ४६ सविग्नो भवनिर्वेदादात्मनि सरण तु य । आत्मार्थसम्प्रवृत्तोऽसौ सदा स्यान्मुण्डकेवली ॥
-योगविन्दु, २६०