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________________ १८ समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र लोकसंज्ञा कहते हैं,५० जो सच्चा धर्म नहीं है, फिर भी एकमात्र धर्म की दृष्टि रख करके ही लोकानुसरण किया जाय तो वह धर्म की यथार्थता में हानिकारक नहीं होता। (E) आत्मा आदि अतीन्द्रिय तत्त्व और उनके विविध स्वरूपो के बारे मे अनेक वादी तार्किक चर्चा-प्रतिचर्चा करते आये हैं और सत्य के नाम पर परस्पर क्लेश का पोपण करते रहे है। यह देखकर हरिभद्र ने निर्भय वाणी मे कहा है कि वंसे अतीन्द्रिय तत्त्व योगमार्ग के बिना गम्य नही हैं। वाद-ग्रन्थ उनमे सहायक नही बन सकते । अपने इस विचार का समर्थन उन्होने किसी अज्ञात योगी का वचन उद्धृत करके किया है । उस वचन का भाव यह है कि जिन्हे सही अर्थ मे निश्चय न हुआ हो और जो सिर्फ परम्परा की मान्यता के अपर स्थिर रहकर वाद-प्रतिवाद करनेवाले ग्रन्थमात्र-जीवी हैं वे कभी तात्त्विक स्वरूप जान नही सकते, और घानी के वल की तरह वे खण्डन-मण्डन के चक्र मे घूमते ही रहते है ।५२ हरिभद्र का यह कटाक्ष गुजराती जानी कवि 'अखा' की निम्न उक्ति का स्मरण कराता है "खट दर्शनना जूजवा मता, माहोमाहे तेणे खाधी खता, एकनु चाप्यु बीजो हणे, अन्यथी आपने अधिको गणे। अखा ए अन्धारो कूवो, झगडो भागी को नव मूयो।" -अखाना छप्पा, ३ ५०. लोकाराधनहेतोर्या मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते सक्रिया साऽत्र लोकपक्तिरुदाहृता ।। योगविन्दु, ८८ ५१. धर्मार्थ लोकपक्ति स्यात्कल्याणाग महामते । तदर्थ तु पुनर्धर्म पापायाल्पधियामलम् ।। योगविन्दु, ६० ५२ एव च तत्त्वससिद्धेर्योग एव निवन्धनम् । अतो यनिश्चितैवेय नान्यतस्त्वीदृशी क्वचित् ।। अतोऽत्रैव महान्यत्नस्तत्तत्तत्त्वप्रसिद्धये । प्रेक्षावता सदा कार्यो वादग्रन्थास्त्वकारणम् ।। उक्त च योगमार्गजैस्तपोनिर्वृतकल्मपै । भावियोगिहितायोचर्मोहदीपसम वच ॥ वादाश्च प्रतिवादाश्च वदन्तो निश्चितास्तथा। तत्त्वान्त नैव गच्छन्ति तिलपीलकवद्गतौ ॥ -योगविन्दु, ८४-७
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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