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समदर्शी श्राचार्य हरिभद्र
श्राचार्य हरिभद्र के साहित्य मे जिसने जितने परिमाण में श्रवगाहन किया वह उतने ही परिमाण मे उनकी विद्वत्ता और तटस्थता के प्रति श्रापित हुआ, श्रीर ईसा की बीसवी शताब्दी के प्रारंभ से तो हरिभद्र की ख्याति उत्तरोत्तर बढती ही गई है। उनकी कृतियो का अवलोकन और सम्पादन करने का श्राकर्षरण विद्वानो मे वढता गया है ।
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डॉ श्रानन्दशंकर बीघ्र वने १६०९ मे 'गुजरात' संस्कृत साहित्य, ए विपयनु थोडु' क रेखादर्शन' नाम का एक निवन्ध, तीसरी गुजराती साहित्य परिषद् मे पढा था श्रीर १९४७ मे श्री दुर्गाशंकर भाई ने 'भारतीय संस्कारोनु गुजरातमा श्रवतरण' इस शीर्षक के नीचे पांच व्याख्यान दिये थे । इन दोनो बहुश्रुत एवं उदारचेता विद्वानो के निबन्धो मे वलभी के भट्टि, भिन्नमाल के ब्रह्मगुप्त और माघ आदि का निर्देश है। जिन भट्ट, ब्रह्मगुप्त श्रोर माघ जैसे विद्वानो की आज तक एक-एक कृति ही उपलब्ध एव विख्यात है उनका तो निर्देश हो और उसी प्राचीन गुजरात की सुप्रसिद्ध राजधानी भिन्नमाल एवं उसके आसपास के प्रदेश मे रह कर जिन्होने श्रनेक कृतियाँ रची हो तथा जो ग्राज भी उपलब्ध हो उनका निर्देश तक उन निबन्धो मे न हो, यह देखकर किसी को सहजभाव से प्रश्न हो सकता है कि वैसे विशिष्ट विद्वान् का परिचय कराना कैसे रह गया होगा ? परन्तु मुझे लगता है कि श्राचार्य हरिभद्र की दर्शन एवं योग- परम्परा विषयक विशिष्ट कृतिया इन दोनो महारथियो के अवलोकन मे यदि श्राई होती, तो उनका उनकी ओर सविशेष ध्यान गये बिना न रहता । शायद ऐसा भी सम्भव है कि उनकी दृष्टि मे हरिभद्र गुजरात की सीमा मे न भी आते हो ।
परन्तु गुजरात के बहुश्रुत श्रोर सुविद्वान् श्री रसिकलाल छो० परीख ने काव्यानुशासन के दूसरे भाग की अपनी सुविस्तृत और सुसम्बद्ध प्रस्तावना मे थोडे से शब्दो मे भी आचार्य हरिभद्र का जो मूल्याकन किया है वह खास ध्यान खीचे ऐसा है ।
अब तो हरिभद्र के ग्रन्थों को विश्वविद्यालयो के पाठ्यक्रम मे भी स्थान मिला है। खास करके उन्होने दर्शन एव योग विषयक जिन उदात्त ग्रन्थो की रचना की है
"It (Bhinnamala) was also one of the centres of literary activity of Haribhadrasuri, the author of many important works on Jaina Philosophy and also of a general work on the schools of Indian Philosophy known as Shaddarshanasamuchchaya He also composed Samaradityakatha, a novel whose hero is Samaraditya "
- काव्यानुशासन भा २, प्रस्तावना पृ० ६७