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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र में ईश्वर को मानता ही नही है ।३५ इस प्रकार ईश्वर के विषय मे अनेक प्रवाद प्रचलित है, परन्तु वे सभी विश्वसर्जन को लक्ष्य मे रखकर प्रवृत्त हुए है। योगपरम्परा मे ईश्वर का विचार जव उपस्थित होता है, तब वह सृष्टि के कर्ता-धर्ता के रूप मे नही, किन्तु साधना मे अनुग्राहक के रूप मे। कई साधक ऐसी अनन्य भक्ति से साधना करने के लिए प्रेरित होते है कि स्वतंत्र ईश्वर सम्पूर्णत, अनुग्रहकर्ता है; उसका अनुग्रह न हो तो कुछ करने का मेरा सामर्थ्य है ही नही। इस बात को लेकर हरिभद्र ने अपना दृष्टि-विन्दु उपस्थित करते हुए कहा है कि महेश का अनुग्रह माने तो भी साधक-पात्र मे अनुग्रह प्राप्त करने की योग्यता माननी ही पडेगी। वैसी योग्यता के विना महेश का अनुग्रह भी फलप्रद नही बन सकता।३६ इससे ऐसा फलित होता है कि साधक की योग्यता मुख्य वस्तु है। उसके होने पर ही अनुग्रह के विषय मे विचार किया जा सकता है । जब साधक अपनी सहज योग्यता के विकासक्रम मे अमुक भूमिका तक पहुचता है, तभी वह ईश्वर के अनुग्रह का अधिकारी बन सकता है । इसके अतिरिक्त ईश्वर के अनुग्रह को मानने पर या तो सभी को अनुग्रह-पात्र मानना पडेगा, या फिर किसी को भी नही । इस प्रकार साधक की योग्यता का तत्व मानने के बाद यह प्रश्न होता है कि अनुग्रहकारी ईश्वर कोई अनादि-मुक्त स्वतंत्र व्यक्ति है अथवा तो स्वप्रयत्न के बल से परिपूर्ण शुद्ध हुआ कोई व्यक्ति है ? हरिभद्र कहते हैं कि अनादिमुक्त ऐसे कर्ता ईश्वर की सिद्धि तर्क से शक्य नही है;3७ फिर भी प्रयत्नसिद्ध शुद्ध आत्मा को परमात्मा मानने मे किसी आध्यात्मिक को आपत्ति नही है । अतएव वैसे प्रयत्नसिद्ध वीतराग की अनन्यभक्ति के द्वारा जो गुण-विकास होता है उसे ईश्वर का अनुग्रह मानने में कोई हर्ज भी नही है ।३८ इस तरह हरिभद्र ने अनुग्राहक के रूप मे स्वतंत्र ईश्वर को स्वीकार न करने पर भी साधक की योग्यता और वीतराग के आदर्श का अनुगमन इन दोनो के सवाद को साधना मे फलावह बतलाया है। ऐसी फलावहता बताते समय उन्होने कहा है कि वैसा वीतराग चाहे जो हो सकता है, अर्थात् उसका किसी देश, जाति, पंथ या नाम के साथ अनिवार्य सम्बन्ध नही है । इस चर्चा के द्वारा हरिभद्र ने साधना मे भक्तितत्व को उपयोगिता, साधक की
३५. देखो 'भारतीय तत्त्वविद्या', पृ १०६ और १११ ।। ३६. देखो 'योगविन्दु', श्लो २६५.से । ३७ वही, श्लो ३०३ और ३१० , 'शास्त्रवार्तासमुच्चय', १९४-२०७ । ३८. गुणप्रकर्षरूपो यत् सर्वेर्वन्धस्तथेष्यते । देवतातिशय कश्चित् स्तवादे फलदस्तथा ॥
--योगविन्दु, २६८