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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता को सम्बोधित करके कहा कि हाथी मार डालेगा, एक ओर हट जाओ ! वह बटुक विकल्प-पटु और तर्करसिक था। उसने महावत से कहा कि हाथी अपने साथ सम्पर्क मे आनेवाले को मारे या सम्पर्क में न आनेवाले को भी मारे ? पहले पक्ष मे तो उसे तुझे ही मार डालना चाहिए, क्योकि तू उसके साथ सम्पर्क मे आया हुआ है;
और दूसरे पक्ष मे मेरी तरह अनेक लोग ऐसे है जो उसके सम्पर्क में नही आये, तो फिर मुझे ही वह क्यों मारे ?33 हरिभद्र इस विनोदपूर्ण उदाहरण के द्वारा तत्वचर्चा में प्रयुक्त होने वाले कल्पना-जाल का निर्देश करके अध्यात्म के साधक को उससे बचने की चेतावनी देते है ।
कुतर्क एवं अभिनिवेश से निवृत्त हुए बिना योग की परिपक्व भूमिका रूप पांचवी दृष्टि मे प्रवेश शक्य ही नही है। इसके पश्चात् तो हरिभद्र ने अनुक्रम से एक से एक ऊंची दृष्टि का निरूपण किया है और उनमे योग के उपयुक्त आठ अंगों को घटाया है, परन्तु उनके अर्थ का विस्तार करके। इसके अतिरिक्त भी योगदृष्टिसमुच्चय मे हरिभद्र ने अनेक ज्ञातव्य एवं अन्यत्र दुर्लभ-ऐसी बातो का भी निर्देश किया है, परन्तु मेरा यह अवलोकन तो उस विषय के जिज्ञासुओ की दृष्टि का उन्मेष करने तक ही मर्यादित है, अतः उसकी विशेष चर्चा के लिए यहां स्थान नही है ।
योगबिन्दु का परिमाण जैसा बड़ा है, वैसे ही उसमे निरूपित विषय भी अनेक हैं और वे तत्त्वज्ञान एवं योगसाधना की दृष्टि से बहुत महत्त्व के भी है, फिर भी इस स्थान पर तो उनमे से खास खास विषयों को लेकर ऐसी चर्चा करने का विचार है जो विशेष जिज्ञासु को योगबिन्दु का आकलन करने के लिए प्रेरित करे
(१) दार्शनिक परम्पराओं मे विश्व के स्रष्टा-संहर्ता के रूप मे ईश्वर की चर्चा आती है। कोई वैसे ईश्वर को कर्म-निरपेक्ष कर्ता मानता है, तो कोई दूसरा कर्मसापेक्ष कर्ता मानता है ।३४ और तीसरा कोई ऐसा भी है जो स्वतंत्र व्यक्ति के रूप
३३. जातिप्रायश्च सर्वोऽय प्रतीतिफलबाधित । हस्ती व्यापादयत्युक्ती प्राप्ताप्राप्तविकल्पवत् ।।
योगदृष्टिसमुच्चय, ६१ ३४. ननु महदेतदिन्द्रजाल यन्निरपेक्ष कारणमिति तथात्वे कर्मवैफल्य सर्वकार्याणा समसमयसमुत्पादश्चेति दोषद्वयं प्रादु ग्यात् । मैवं मन्येथा ।।
-सर्वदर्शनसग्रहगत नकुलीशपाशुपतदर्शन, पृ० ६५ तमिम परमेश्वर कर्मादिनिरपेक्षः कारणमिति पक्ष वैषम्यनण्यदोषदूषितत्वात्प्रतिक्षिपन्त केचन माहेश्वरा शैवागमसिद्धान्ततत्त्व यथावदीक्षमाणा कर्मादिसापेक्ष परमेश्वर कारणमिति पक्षं कक्षीकुर्वाणा पक्षान्तरमुपक्षिपन्ति ।
-सर्वदर्शनसग्रहगत शैवदर्शन, पृ० ६६