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दर्शन एव योग के विकास में हरिभद्र का स्थान
[२३ कवित्व की असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न और नये नये आचार-विचारो को आत्मसात् करनेवाले ब्राह्मण पुरोहित वर्ग ने 'ब्रह्म' पद का अन्त में ऐसा अर्थ विकसित और फलित किया कि ब्रह्म अर्थात् विश्वगत विविध भेद-सृष्टियो का प्रभवस्यान ।१५ दूसरी ओर 'सम' के उपासक एवं असाधारण साधक व्यावहारिक जीवन के सभी अंगो मे समत्व या समभाव फैलाने की साधना कर रहे थे ।१६ इसके कारण सामाजिक एवं आध्यात्मिक जीवन मे समत्व का अर्थ अत्यन्त सूक्ष्म भूमिका तक विकसित हुआ। समत्व की साधना भी भेद-सृष्टि की भूमिका के ऊपर चलती थी। परन्तु वह अद्वीत मे परिणत न होकर आत्मौपम्य मे परिणत हुई। १७ यह साधना ही योग परम्परा की असली बुनियाद है ।
__ भारत भूमि मे दर्शन एवं योग इन दोनों का सर्वथा अलग-अलग विकास दृष्टिगोचर नहीं होता। दार्शनिक तत्त्वचिन्तन हो वहा योग के किसी न किसी अग
१५ "ब्रह्म वा इदमन आसीत्" इत्यादि "बृहदारण्यकोपनिपद्" १, ४, १०, "ब्रह्मसूत्र" १, १, १-४, शाकरभाष्यसहित, "भगवद्गीता" १३, १२ अादि, १४, ४ । १६ "भगवद्गीता" के अधोलिखित श्लोक देखो :
योगस्थ कुरु कर्माणि सग त्यक्त्वा धनजय । सिद्धयसिद्धयो समो भूत्वा समत्व योग उच्यते ॥ २ ४८ ।। यदृच्छालाभसतुष्टो द्वातीतो विमत्सर । सम सिद्धावसिद्धौ च कृत्वाऽपि न निवद्धयते ।। ४ २२ ।। विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता समदर्शिन || ५ १८ ॥ इहैव तैजितः सर्गो येषा साम्ये स्थित मन । निर्दोष हि सम ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मरिण ते स्थिता ॥ ५ १६ ॥ सर्वभूतस्थमात्मान सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन ॥ ६ २६ ।। आत्मौपम्येन सर्वत्र सम पश्यति योऽर्जुन । सुख वा यदि वा दु ख स योगी परमो मत ।। ६ ३२ ।। "उत्तराध्ययनसूत्र" की निम्नाकित गाथा देखो --- समयाए समणो होइ वभचेरेण वभयो ।
नाणेण उ मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥ २५ ३२॥ १७. देखो "अध्यात्म विचारणा" पृ० १२०-२१ । देखो "प्राचारागसूत्र" का नीचे का पाठ - सव्वे पाणा पियाऊया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा सव्वेसि जीविय पिय । २, ३, ४ लोगसि जारण अहियाय दुक्ख समय लोगस्स जाणित्ता एत्थ सत्थोवरए । ३, १, १, से प्रावय नारणव वेयव धम्मव वभव पन्नाणेहिं परिजाइ लोग । ३, १, २, पावती केयावती लोगसि समणा य माहणा य पुढो विवाय वयति - “से दिट्ठ च