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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र नही, किन्तु भूमिवासी प्राणी, पशु, मनुष्य एवं पशु-मनुष्य की मिश्र प्राकृतिवाले सत्त्वो की अवतार के रूप मे पूजा करते थे, और वह पूजा मिट्टी, पत्थर, लकडी, धातु आदि के प्रतीक तथा चित्र एव इतर प्रतिकृतियो के द्वारा की जाती थी। यह मूर्तिपूजा का ही एक खास स्वरूप था। १२ आर्यवर्ग मे ऐसी मूर्तिपूजा ज्ञात नही होती। यद्यपि उसमे यजन कार्य मे दम्पति सम्मिलित होते थे, परन्तु यजन की विधि विशिष्ट पुरुष अर्थात् पुरोहित के अतिरिक्त कोई नहीं करा सकता था। दान-दक्षिणा द्वारा यज्ञ करानेवाला दूसरा वर्ग भले ही हो, परन्तु मत्रोच्चार एवं इतर विधि-विधान तो विशिष्ट पुरुप - पुरोहित का ही अधिकार था, जब कि आर्येतर जातियो के धर्म मे प्रचलित पूजा-विधि मे स्त्री-पुरुष, छोटा-बडा या चाहे जैसा ऊचा-नीचा अधिकार रखनेवाला व्यक्ति समान भाव से भाग ले सकता था। आर्यों के यज्ञो मे इतर द्रव्यो के साथ मास की आहुति भी दी जाती थी, जब कि आर्येतर धर्मों की पूजा मे, आजकल जैसे मूर्ति के सामने नैवेद्य धरा जाता है वैसे, पत्र, पुष्प, फल, जल एव दीपक आदि का उपयोग होता था। आर्य यज्ञ विधि अत्यन्त जटिल, तो आर्येतर पूजा बिलकुल सरल और सादी । इस प्रकार आर्य एव आर्येतर जातियो के प्राचीन धर्मों में बहुत बडा अन्तर था ।१३
इसी प्रकार इनके तत्त्वज्ञान में भी खास अन्तर देखा जाता है। आर्यवर्ग मे तत्त्वज्ञान 'ब्रह्म' शब्द के विविध अर्थों के विकास के साथ सकलित है, जब कि आर्येतर जातियो का तत्त्वज्ञान 'सम' पद के विविध पहलुप्रो के साथ आयोजित देखा जाता है।४
India by taking shape in a non-Aryan environment reconciled the Dravidians and others to come under the tutelage of Sanskrit as the sacred language of Hinduism and as the general vehicle of Indian culture'
पाकिरण के विस्तृत वर्णन के लिए देखो Dr DR Bhandarkar “Some Aspects of Ancient Indian Culture" Arganisation, p 24
११ “Vedic Age" Ch XVIII. Religion and Philosophy, P 460, डॉ० सुनीतिकुमार चेटर्जी का उपर्युक्त व्याख्यान, पृ० ५२ ।।
१२ डॉ० सुनीतिकुमार चेटर्जी का उपयुक्त व्याख्यान, पृ० ५२, "विष्णुधर्मोत्तर" ४३, ३१-५।
१३ डॉ. सुनीतिकुमार चेटर्जी का उपर्युक्त व्याख्यान, पृ० ५३ ।
१४ देखो-गुजराती साहित्य परिपद् के २० वें अधिवेशन के तत्त्वज्ञान विभाग के अध्यक्षपद मे दिया गया मेरा व्याख्यान, "ब्रह्म अने सम।"
-बुद्धिप्रकाश, वर्ष १०६, अक ११, पृ० ३८६ ।