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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र का न्यूनाधिक सम्बन्ध रहता ही था, और योग की साधना हो वहा किसी न किसी प्रकार के तत्त्वचिन्तन का भी प्राधार होता ही था । ब्रह्मतत्त्व का चिन्तन और समत्व की साधना इन दोनो के अति प्राचीन अल्पाधिक सम्बन्ध के परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे ये दोनो ऐसे एकरस हो गये कि ब्रह्मवादी अपने को समवादी और समवादी अपने को ब्रह्मवादी कहने लगा;१८ ब्राह्मण समन के रूप मे और समन ब्राह्मण के रूप मे पहचाना जाने लगा ।१६ दर्शन एवं योग की इस सुदीर्घ विकास प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जो मूलभूत सिद्धान्त स्थिर हुए और जो किसी भी भारतीय परम्परा मे एक अथवा दूसरे रूप में विद्यमान है और जिनके कारण भारत की संस्कृति इतर देशो की संस्कृति से कुछ अलग-सी पडती है, वे सिद्धान्त संक्षेप मे इस प्रकार है
१. स्वतन्त्र आत्मतत्त्व का अस्तित्व ।। २ पुनर्जन्म और उसके कारण के रूप मे कर्मवाद का सिद्धान्त ।
_णे सुय च रो मय च णे विनाय च रणे .. सन्वे पारणा सव्वे भूया सव्वे जीवा ... हतन्वा . __एत्थ पि जारणह नत्थेत्थ दोसो"- अरणारियवयरणमेय । तत्थ जे ते आरिया ते एव वयासी
"से दुद्दिट्ट च भे, दुस्युय च भे ..." अणारियवयणमेय ॥ वय पुरण एव आइक्खामो .. "सव्वे पारणा न हतन्वा ...." पारियवयणमेय | पुन्य निकाय समय पत्तेय पत्तेय पुच्छिस्सामो- "ह भो वावादुया। किं भे साय दुक्ख उयाहु असाय?" समियावडिवन्ने या वि एव बूया - "सव्वेसिं पाणाण ... असाय अपरिरिगव्वाण महन्भय दुक्ख ति"त्ति बेमि । ४, २, ३-४ देखो “सूत्रकृताग" की निम्न गाथाए -
उराल जगमो जोग विवज्जास पलेंति य ।। सव्वे अक्कतदुक्खा य अग्रो सव्वे अहिंतिया ॥ १, १, ४, ६ ॥ एय खु णारिणणो सार ज न हिंसइ किंचण। अहिंसा समय चेव एयावत वियारिणया ॥१, १, ४, १० ॥ विरए गामधम्मेहिं जे केई जगई जगा ।
तेसि अत्तुवमायाए थाम कुव्व परिव्वए ॥ १, ११, ३३ ॥ देखो "दशवकालिक" को नीचे की गाथा :
सब्वे जीवा वि इच्छति जीविउ न मरिज्जिउ ।
तम्हा पारिणवह घोर निग्गज्ञा वज्जयति ण ॥ ६, ११ ॥ १८ निर्दोप हि सम ब्रह्म । --- भगवद्गीता, ५, १६
देखो "स्वयम्भूस्तोत्र" मे आये हुए अधोलिखित पद :--- वभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वर । १, ४ स ब्रह्मनिष्ठ सममित्रशत्रु । २, ५
अहिंसा भूताना जगति विदित ब्रह्म परमम् । २१ ४ १६ से आयव नारणव वेयव धम्मव बम्भव पन्नाणेहिं परिजात्तई लोग ।
-आचारागसूत्र ३, १, २