________________
५८]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र भिन्न हो । प्रारम्भ मे ही बुद्धिभेद नही करना चाहिए और गर्न शने जिज्ञासुओं को गहराई मे ले जाना चाहिए-ऐसी बुद्ध की दृष्टि या नीति थी। जब बौद्ध परम्परा मे भी एक-दूसरे के साथ मेल बैठ न सके और कभी आपस मे एक न हो सके ऐसे विरोधी वाद खडे हुए, तब बौद्ध विद्वानो को भी वे वाद भूमिका-भेद से घटाने पडे । हरिभद्र तो बौद्ध नहीं है, और फिर भी उन बौद्ध वादो को अधिकार-भेद से योग्य स्थान देकर वे जब यहा तक कहते हैं कि बुद्ध कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, वह तो एक महान् मुनि है, और ऐसा होने से बुद्ध जव असत्यका आभास कराने वाला वचन कहे, तब वे एक सुवैद्य की भाति खास प्रयोजन के विना तो वैसा कह ही नही
३७. प्रात्मेत्यपि प्रज्ञपितमनात्मेत्यपि देशितम् ।
बुद्धर्नामा न चानात्मा कश्चिदित्यपि देशितम् ॥ ६ ॥
" यतश्चैव हीनमध्योत्कृष्टविनेयजनाशयनानात्वेन - प्रात्मानात्मतदुभयप्रतिषेधेन बुद्धाना भगवता धर्मदेशना प्रवृत्ता, तस्मानास्त्यागमवाघो माध्यमिकानाम् । अत एवोक्तमार्यदेवपादै -
वारण प्रागपुण्यस्य मध्ये वारणमात्मन । सर्वस्य वारण पश्चाद् यो जानीते स बुद्धिमान् ॥ -नागार्जुनकृत मध्यमककारिका, प्रात्मपरीक्षा,
पृ ३५५ तथा ३५६ सर्व तथ्य न वा तथ्य तथ्य चातथ्यमेव च ।
नैवातथ्य नैव तथ्यमेतद्बुद्धानुशासनम् ॥ ८ ॥ " तथा च भगवतोक्त । लोको मया सार्च विवदति नाह लोकेन सार्ध विवदामि । यल्लोकेऽस्ति समत तन्ममाप्यस्ति समतम् । यल्लोके नास्ति समत ममापि तन्नास्ति समतमित्यागमाच्च ।
इत्यादित एव तावद् भगवता स्वप्रसिद्धपदार्थभेदस्वरूपविभागश्रवणसजाताभिलाषस्य विनेयजनस्य यदेतत्स्कन्धधात्वायतनादिकमविद्यातमिरिक सत्यत परिकल्पितमुपलब्ध तदेव तावत्तथ्यमित्युपरिणत भगवता तद्दर्शनापेक्षया प्रात्मनि लोकस्य गौरवोत्पादनार्थम् ।
-मध्यमकवृत्ति, आत्मपरीक्षा, पृ ३६९-७० देखो 'विग्रहव्यावर्तनी' के निम्नाकित दो श्लोक तथा उनकी व्याख्या -
कुशलाना धर्माणा धर्मावस्थाविदश्च मन्यन्ते । कुशल जनस्वभाव शेपेप्वप्येष विनियोगः ॥७॥ कुशलाना धर्माणा धर्मावस्थाविदो ववते यत् । कुशलस्वभाव एव प्रविभागेनाभिधेय स्यात् ॥५३॥