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मदर्शी भाषाएं हमन
प्रतीत
पर भी हरिभद्र की जिज्ञासा और विद्याव्यायोगवृत्ति उन अधिक होती है कि उन्होने अपनी उस स्थिति में भी उस काल में सभ्य मन दर्शनिक परम्प राम्रो का तलस्पर्थी अध्ययन किया। मान्तरक्षित सभी दर्शनों में विशारद होने पर भी जैसे बौद्ध शाखा के निकटतम अभ्यासी थे, वैसे ही हरिभद्र भी दर्शनों के सुविद्वान् होने पर भी जैन परम्परा यी तत्कालीन सभा के अभ्यासी थे । शान्तरक्षित की भांति हरिभद्र तिव्वत या नेपाल तक नहीं गये, परन्तु जिस प्रदेश में उन्होंने विहार किया उस प्रदेश में रहकर भी नानन्दा श्रादि बीट विश्वविद्यालयो के महान ग्रन्थकारी की कृतियों का गहरा पारायण उन्होंने किया था।
शान्तरक्षित के मूल ग्रन्थ तत्त्वसंग्रह यी अपेक्षा शान्त्रवानसमुचय का द बहुत छोटा है— एक पंचमाश से भी कुछ कम । हरिभद्र ने टस ग्रन्थ की व्याया स्वयं लिखी है, परन्तु वह भी बहुत हो संक्षिप्त है । तत्त्वसंग्रह के जैमी हो मतमतान्तरो को समीक्षा गास्यवार्तासमुचय मे है, परन्तु वह भी तत्त्वसंग्रह की अपेक्षा संक्षिप्त है । कमलशील ने तत्त्वसंग्रह पर जेनी विशद और विस्तृत व्याप्या लिखी है वैसी तो हरिभद्र की व्याख्या नही है, परन्तु हरिभद्र मे ना मो वर्ष पञ्चात् होनेवाले वाचक यशोविजयजी ने शास्त्रवार्तासमुच्चय का महत्त्व देखकर उस पर एक विस्तृत व्याख्या लिखी है । निस्सन्देह यह व्याख्या सत्रहवी शताब्दी तक के समय में हुए भारतीय दार्शनिक चिन्तनवारात्रो के विकास का निदर्शन है, फिर भी यह व्याख्या उस काल में प्रतिष्ठित नव्य न्याय की गंगेश-शैली मे लिखी गई है, ग्रत यह विशिष्ट जिज्ञासु के लिए भी सुगम नही है, जब कि कमलशील की व्याख्या बहुत सुगम है |
इस तरह देखने पर ऐसा कहा जा सकता है कि शास्त्रवार्तासमुच्चयको तत्त्वसंग्रह की समान कक्षा पर नहीं रखा जा सकता । स्वयं हरिभद्र हो शास्त्रवार्तानमुच्चय में तत्त्वसंग्रह के प्रणेता शान्तरक्षित को 'सूक्ष्मबुद्धि' १ २७ कहकर उनकी योग्यता का पूरा बहुमान करते हैं, परन्तु तुलना में एक दूसरी दृष्टि भी विचारणीय है और वही दृष्टि यहां प्रस्तुत है ।
सामान्य रूप से दार्शनिक परम्परा के सभी बड़े-बड़े विद्वान् ग्रपने ने भिन्न परम्परा के प्रति पहले से लाघवबुद्धि और कभी-कभी अवगरणनावृत्ति भी सेते श्राये हैं | अपने मे भिन्न धर्म या दर्शन परम्परा के प्रति अथवा उसके पुरस्कर्ता एव श्राचार्यो के प्रति गुरणग्राही दृष्टि ने ग्रादरसूचक वृत्ति दार्शनिक कुरुक्षेत्र मे दृष्टिगोचर नही होती,
शास्त्रवार्तासमुच्चय, श्लोक
२७ देखो 'एतेनैतत्प्रतिक्षिप्त यदुक्त सूक्ष्मबुद्धिना' २९६ तथा उस पर की स्वोपज्ञ वृत्ति ।
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