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दार्शनिक परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [५१ छोटे-बड़े मतभेद रखनेवाले विद्वान् बौद्ध परम्परा मे हुए है और थे। उनका भी शान्तरक्षितने केवल निर्देश ही नहीं किया, बल्कि उनकी सूक्ष्म समालोचना भी की है ।२४
शान्तरक्षित की एक खास विशेषता उल्लेखनीय है । वह यह कि उन्हे बौद्ध परम्परा को उनके समय तक अस्तित्व मे आई हुई सभी छोटी-बडी शाखाप्रो के ग्रन्थ, ग्रन्थकार और उनकी जीवन-प्रणालिकामो का प्रत्यक्ष और सजीव तथा गहरा परिचय था। बौद्धेतर किसी भी परम्परा के विद्वान् से वैसे परिचय की अपेक्षा नही रखी जा सकती । इससे बौद्ध परम्परा के तत्त्वज्ञान विषयक विकास की प्रामाणिक
और सर्वाङ्गीण जानकारी प्रस्तुत करनेवाला कोई आकर-ग्रन्थ लभ्य हो तो वह तत्त्वसंग्रह है।
तत्त्वसंग्रह के ऊपर जो पंजिका' नाम की विस्तृत टीका है वह शान्तरक्षित के प्रधानतम शिष्य कमलशील की है । कमलशील भी एक बड़े बौद्ध विद्यापीठ के आचार्यपद पर रहे थे। वह प्रबल बहुश्रुत दार्शनिक होने के साथ ही तात्रिक भी थे ।२५ कमलशील ने अपने गुरु शान्तरक्षित के मूल ग्रन्थ का जैसा मर्मोद्घाटक विवेचन किया है वह विरल है । शान्तरक्षित ने सुश्लिष्ट एवं प्रसन्न पद्यो मे जो कुछ संक्षेप मे ग्रथित किया है उस सब का कमलशीलने विशद विवरण तो किया ही है, परन्तु उन्होने अपनी ओर से भी उस-उस विषय से सम्बद्ध कई बातें जोडी है, और उसमे ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारो की इतनी सुन्दर पूर्ति की है कि उससे यह तत्त्वसंग्रह अनेक दृष्टि से विशेष अध्येतव्य ग्रन्थ बन गया है ।२६
हरिभद्र एक जैन आचार्य है। जैन परम्परा के अनुसार वह न किसी एक स्थान पर स्थिरवास ही कर सकते थे और न छोटे या बड़े किसी भी प्रकार के विद्यापीठ का प्राचार्यपद ही स्वीकार कर सकते थे। जैन परम्परा मे बौद्ध या ब्राह्मण परम्परा की भांति विद्यापीठ भी नही थे; अत हरिभद्र का जो अध्ययन-अध्यापन या शास्त्रीय परिशीलन था वह मुख्यतया उनके आसपास विचरण करनेवाले तथा साथ मे रहनेवाले एक बहुत ही छोटे मुनिमण्डल तक ही सीमित हो सकता था। ऐसा होने
२४. वसुमित्र, धर्मत्रात, घोषक, बुद्धदेव ('तत्त्वसग्रहपजिका' पृ ५०४), समन्तभद्र (सघभद्र- 'तत्त्वसग्रहपजिका' पृ ५०६, ५०८), शुभगुप्त ('तत्त्वसग्रहपजिका' पृ १५५ आदि), योगसेन ('तत्त्वसग्रहपजिका' पृ. १५३)।
२५. देखो 'तत्त्वसग्रह' की प्रस्तावना पृ १६ । २६ देखो 'तत्त्वसग्रह' भा २ के अन्त मे दिया गया परिशिष्ट पृ ७६-६७ ।