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दार्शनिक परम्परा मे आचार्य हरिभद्र की विशेषता
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इतना ही नही, प्रतिवादी के मन्तव्यों को किसी भी तरह से दूषित करने का एक ही ध्येय इस क्षेत्र मे अपनाया गया हो ऐसा लगता है । प्रतिपक्षी दार्शनिक की दृष्टि मे कुछ भी सत्य है या नही, यह खोजने की और ज्ञात हो तो उसे स्वीकारने की तटस्थ वृत्ति कोई दिखलाता हो, ऐसा प्रतीत नही होता । शान्तरक्षित जैसे बहुश्रुत आचार्य और भिक्षु पद पर प्रतिष्ठित एवं ग्राध्यात्मिक पथ के पथिक ने भी अपने ग्रन्थ मे जिन-जिन परपक्षो की सूक्ष्म और विस्तृत समालोचना की हैं उसमे कही भी उन्होने उन परपक्षो के खण्डन के सिवाय दूसरा दृष्टिबिन्दु उपस्थित किया ही नही है । वह चाहते तो परपक्ष का प्रतिवाद करने पर भी उसमे से कुछ सत्याश खोज सकते थे, परन्तु उनका उद्देश्य ही एक मात्र प्रतिपक्षी दर्शन के निराकरण का ज्ञात होता है । हरिभद्र, शान्तरक्षित की भांति, उन्हे सम्मत न हो वैसे मतो की अपने ढंग से समालोचना तो करते हैं, परन्तु उस समालोचना मे उस उस मत के मुख्य पुरस्कर्ताओं अथवा प्राचार्यो को वह तनिक भी लाघव अथवा अवगणना की दृष्टि से नही देखते, उल्टा, वह स्वदर्शन के पुरस्कर्ताग्रो अथवा श्राचार्यो को जिस बहुमान से देखते है उसी बहुमान से उन्हे भी देखते हैं । हरिभद्र ने प्रतिपक्षी के प्रति जैसी हार्दिक बहुमानवृत्ति प्रदर्शित की है वैसी दार्शनिक क्षेत्र मे दूसरे किसी विद्वान् ने, कम से कम उनके समय तक तो प्रदर्शित नही की है । इससे मेरी राय मे यह उनकी एक विरल सिद्धि कही जा सकती है ।
जब कोई विद्वान् स्वयं ही अपने खण्डनीय प्रतिपक्ष के पुरस्कर्ताका बहुमानपूर्वक उल्लेख करे, तब समझना चाहिए कि उसकी आन्तरिक भूमिका गुणग्राही और तटस्थतापूर्ण है । इसी भूमिका का नाम समत्व अथवा निप्पक्षता है । जब मानसिक भूमिका ऐसी हो, तब विद्वान् समालोचक प्रतिपक्ष का निराकरण करने पर भी उसके मत मे रहे हुए सत्याश की शोध करने का प्रयत्न किये बिना रह नही सकता, और वैसे प्रयत्न से कुछ ग्राह्य प्रतीत हो तो उसे वह अपने ढंग से उपस्थित किये बिना भी रह नही सकता । हरिभद्र के ग्रन्थो मे इसके उदाहरण उपलब्ध होते है । यहाँ वैसे कुछ उदाहरणो को उद्धृत करके हम देखेगे कि हरिभद्र ने प्रतिपक्ष के मन्तव्यकी समालोचना करते समय उसमे से उन्हें ग्राह्य प्रतीत हो वैसे कौन-कौन से मुद्दे लिये है और अपने मन्तव्य के साथ किस प्रकार उनकी तुलना की है—
१ हरिभद्र ने भूतवादी चार्वाक की समीक्षा करके उसके भूत-स्वभाववाद का निरसन किया है और परलोक एव सुख-दुख के वैपम्यका स्पष्टीकरण करने के लिए कर्मवाद की स्थापना की है । इसी प्रकार चित्तशक्ति या चित्त वासना को कर्म मानने वाले मीमासक और बौद्ध मत का निराकरण करके जैन दृष्टि से कर्म का स्वरूप क्या