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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र नही दीख पडती जिसमे साधना के अंग के रूप में विकसित आचार एव विचार का, एक अथवा दूसरे रूप मे, समावेश न हुआ हो ।
तत्त्वज्ञान, सम्प्रदाय और साधको की भिन्नता होने पर भी आध्यात्मिक साधना एक ही है-ऐसा जव हम कहते हैं तव उसका भाव क्या है यह समझ लेना हमारे लिए आवश्यक है। जीवन के साथ अनिवार्य रूप से संलग्न एवं संकलित जो जो मांगलिक तत्त्व हैं उन्हे आवृत करने वाले मल या क्लेशो के निवारण का सतत प्रयत्न ही आध्यात्मिक साधना है । इस साधना मे मुख्यतः भक्ति, क्रिया-कर्मशक्ति, ध्यान और ज्ञान इन चार चित्तगत गुणो का विकास करने का होता है । ईश्वर, वीतराग अथवा अन्य किसी उदात्त आदर्श को सतत सम्मुख रखकर निष्ठापूर्वक जीवनव्यवहार चलाना भक्तियोग है । शारीरिक और मानसिक जीवन इस तरह जीना कि जिससे शरीर नीरोग और सबल रहे और साथ ही मन क्लेशो के आघात का अनुभव न करे, इसी भाति साधक जिस समाज या समष्टि मे रहता हो उस समाज या समष्टि को अपने आचार-विचार से त्रास या बाधा न पहुँचाना-ऐसी जीवन-कला क्रिया अथवा कर्मयोग हैं। बाह्य आकर्षक भोग्य विषयो मे सतत प्रवृत्तिशील मन को इन्द्रियो के अनुगमन अथवा परतन्त्रता से मुक्त करके इस तरह स्थिर करना जिससे कि इन्द्रियाँ स्वयं ही मन की अनुगामी या मन के अधीन बनेयह ध्यान-योग है। इन तीनो योगो के द्वारा मन की ज्ञान-कला यहाँ तक विकसित करनी कि उसके द्वारा मन अपना भीतरी स्वरूप बराबर समझ-बूझ सके और कौनकौन ने क्लेग किस-किस तरह काम करते हैं तथा वे अपने और दूसरे के जीवन में किस तरह वाधक होते है यह यथार्थ रूप मे समझ सके, तथा इन क्लेशों की जड क्या है और वह कैसी है उसे पकड सके-यह ज्ञानयोग है । पातंजल योगशास्त्र के प्रथम पाद में ईश्वरप्रणिधान,२१ वीतरागध्यान २२ और जप २३ जैसे विधानो से भक्तियोग सूचित किया गया है। दूसरे पाद मे तप, स्वाध्याय और यम-नियम के जिन स्वत्पो का वर्णन किया है तथा पहले पाद मे मैत्री, करुणा आदि जिन चार भावनायो का निर्देश है उनके द्वारा कर्मयोग सुचित होता है। प्रथम पाद मे एकतत्वाभ्यात ने प्रारम्भ करके स्यूल, सूक्ष्म, अणु अथवा महत् किसी भी विपय मे मन को रोकने का और अनुक्रम मे इस धारणा की स्थिति से समाधि तक की स्थिति
२१ 'योगसूत्र' १२३, २१, ४५ । २२. 'योगा ' १३७ । २३. 'योग' १.२८ ।