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योग-परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता बुद्ध, गोशालक और महावीर की भाति दूसरे भी अनेक श्रमण-धर्म के नायक उस समय थे । उनमे सांख्य परिव्राजको का विशिष्ट स्थान था। वे परिव्राजक भी तपत्याग के ऊपर भार तो देते ही थे, फिर भी उनमे कितने ही ऐसे साधक भी थे जो मुख्य रूप से ध्यानमार्गी थे और ध्यान एवं योग के विविध मार्गों का अनुसरण करते थे। स्वयं बुद्ध ने ही वैसे साख्य गुरुप्रो के पास ध्यान की शिक्षा ली थी ।२० उतने से जब उन्हे सन्तोष न हुआ तब ध्यान की दूसरी कई नई पद्धतियो का भी उन्होने प्रयोग किया। इस प्रकार बुद्ध से ही ध्यानलक्षी बौद्ध-परम्परा का प्रारम्भ हुआ। साख्य परिव्राजकों की ध्यान-प्रक्रिया योग के नाम से विशेष प्रसिद्ध हुई और बुद्ध की ध्यानप्रक्रिया समाधि के नाम से व्यवहृत हुई, तो आजीवक और निर्ग्रन्थ परम्परा की साधना तप के नाम से पहचानी जाती है। फिर भी निर्ग्रन्थ-परम्परा मे इसके लिए 'संवर' शब्द विशेष प्रचार मे आया है। इस तरह हम कह सकते है कि योग, समाधि, तप और संवर ये चार शब्द आध्यात्मिक साधना के समग्र अंग-उपागो के सूचक है और इसी रूप मे वे व्यवहार मे प्रतिष्ठित भी हुए हैं ।
प्रत्येक आध्यात्मिक साधक अपनी साधना किसी-न-किसी प्रकार के तत्त्वज्ञान का अवलम्बन लेकर ही करता था । तत्त्वज्ञान की मुख्य तीन शाखाएँ है-(१) प्रकृतिपुरुष द्वैतवादी, (२) परमाणु और जीव बहुत्ववादी, और (३) अद्वैत ब्रह्मवादी । जो साधना योग के नाम से प्रख्यात हुई है उसके साथ मुख्यतया प्रकृति-पुरुष द्वैतवाद का सम्बन्ध देखा जाता है; समाधि, तप और संवर के नाम से जो साधना प्रसिद्ध हुई उसके साथ परमाणु एवं जीवबहुत्ववाद का सम्बन्ध रहा है, और जो साधना वेदान्त के नाम से व्यवहृत हुई उसके साथ मुख्यत अद्वैत ब्रह्मवाद का सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है।
इस प्रकार तत्त्वज्ञान का भेद तो था ही और साधना के नामो मे भी भेद चलता था, फिर भी इन साधनायो के मार्गों एवं अंगो के ऊपर जब हम विचार करते हैं तब ऐसा ज्ञात होता है कि किसी ने अपनी साधना मे अमुक अंग अथवा पद्धति को प्राधान्य दिया है, तो दूसरे ने दूसरे अंग अथवा पद्धति पर भार दिया है । उनमे फर्क सिर्फ गौण-मुख्यभाव का ही है, परन्तु ऐसी कोई आध्यात्मिक साधना
२०. देखो 'मज्झिमनिकाय' मे महासच्चकसुत्त। अश्वघोपने 'बुद्धचरित' काव्य मे आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र को, जिनके पास बुद्ध ने सर्वप्रथम योग सीखा था, साख्यमत के प्रवर्तक कहा है। विशेष चर्चा के लिए देखो श्री धर्मानन्द कोसम्वी का 'बुद्धचरित' पृ० १०।