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नन्द प्राचार्य हरिन्द्र गया। दोनों तीर्थनायक देहदनन के अरभार ते ये, नन्न वितरण करते थे, नशान र मृन्य गृहों में एकाती रहते थे, मुष्क एवं नीरस याहार लेते थे और लवे लन्त्र उपवास भी करते थे; ६ फिर भी उन्होंने कभी बुद्ध के जैन तर एवं नों कामावरण नहीं किया । अन्त में कुछ इस तीमार्ग का परित्याग करके दूसरे नार्ग का अवलम्वन लेते हैं, किन्तु गोगानक और नहार नेनों तपश्चर्या का अन्त तक आश्च लेते हैं। इस बात का विलेपण करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ तप की उलट मोटि ना पहुंने थे रस्तु जब उसका परिणाम उनके लिए सन्तोषप्रद न बाग नत्र वह च्यानमार्ग की और अभिमुत्र हुए और नप को नित्यं मानने मनवाने लगे।'' भारद यह उनके मन्यन्त उलट देहनन की प्रतिक्रिया हो; परन्तु गोगालक और नहावीर के बारे में ऐसा नहीं है। उन्हेंने उन तप के सय पहले ही ने ब्यान में अन्ननर के ज्यर पूरा लल दिया था और उन्होंने ऐसा भी कहा कि वाह्य तप चाहे जितना बोर हो, परन्तु उनकी सार्थकता अन्तस्तर पर लम्वित हैं। इसीलिए उन्होंने अपने तपोमार्ग में बाह्य तप ने ग्रन्चना के एक सावन के रूप में ही स्थान दिया ! सम्भवतः इसी कारण उनमें प्रतिक्रिया न हुई। गोगालक का जो जीवनवृत्त मिलता है वह तो वौद्ध और जैन ग्रन्यों के द्वारा ही मिलता है। फिर भी उसमें से इतना सार तो निकलता ही है नि गोनालक स्वयं तथा उनका आजीवन श्रमणसंव नग्नत्व के १६ स्वर अधिक भार देता था।
१६. गोमालक ने निर देवो भगवनी' मृतक १५ क्या भगवतीतार पृ० २८०, २-४-५॥
१५. बुद्ध की तपस्या और उसकी निरक्सा जो उन्हें माई उनके बारे में देखो 'मन्निनिकाय के दुश्ववनुत्त, म्हाडीनान्नुत्त और अरिपरिएसनमुत्त तया ___ 'वरित' (वानन्द नेसन्दीत) में तद्विषयक करण पृ० १६४।
तुलना क्रो
उपनिबन्यो दिन योगी। -भगवद्गीता ६.४६ १८. उचो 'प्रावरांगन में अळ्यन र ऋोनिदिष्ट त्यान
अट्ठ पोरिनि विरियं निति क्युगसम अंतनो भाइ (४६); राई दिवं पि जयमाले अन्मने माहिर नइ {cs); अन्नाई गियाही र महत्वेनु अनुच्चिए
सिद्धान्त के मन में बाह्य तप की अपेक्षा प्रान्यन्तर नप का ही अधिक नहत्त्व नाना ग्ण है
वाहं तपः परमस्वरमावरदमाध्यात्मिकल्प तसः परिवणार्यन् ।
स्वपन्नूस्तोत्र १९.३ १६. देतो 'भगवतीमार' पृ० २१॥