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________________ ६४] सन्द आचार्य हरिमन पुर करने वाले वान दत को का उल्न जाता है। उक्त का संक्षेत्र में प्रथइनना ही है कि ननुष्य होने पर भी बुद्धिपूर्वक मानवसमाज की प्रचलित वर्ण का परित्यार करके पशु-पक्षी जैसा निरवच बीवन जीने वाला जायक । जैन पुराणों में ने अपनदेव का प्रथम तीबर के बने स्थान है ही। उनमें भागवत इंसा नगर, गाय मृग ऋयबा का देसी वर्ग का वर्णन तो नहीं जाता, परन्तु जो उत्क्ट तपका वर्णन साता है वह इतना तो चित करता ही है कि ऋपादेव ने सर्वच निन्म होकर जीवन जीने वाले क्लिी विशिष्ट ववत केल्य में लोकादर प्राप्त किया था। ....." एवं फोनमाया स्तिनासीत. मयानः मृगौरित. पिवति सास्यवहार न॥४॥ इति नानायोगारणो नाबान कंवल्यातिपनो विरतपरन्न्हानन्दानुन्द जालनि सयां तानानानने स्पति गनुदेव पालनोऽव्यवदानानन्तरोदरममावेन सिद्धसनद्धार्थपरिपूर्ण योगागि देहान्दोजगन्नान रखाप्रवेङ्करम्हलानि पृच्छयोपतानि नाजा नृप हृदग्नान्यदन्दम् ॥ ५॥ -श्रीनद् भागवत स्व . अध्याय ५ ध्या में लोद ६ १६ में भी यह वर्ग मानी है। ४. 'श्रीमावत' कब ११, व्याय, ग्लोष३:- २४ गुल्लोंके नान है । इसके पहाव उना वर्णन करने कोनमेन से गुरु नये वीडे का वर्णन है। ५. हे रन प्रज्ञा कोलिए पटनाया पहनविणे पनवेली पहननित्यरे पढनरन्तरकट्टी मुनिले । -उन्हीपनप्ति नीष पृ. १३५, नूत्र ३० इसके अनिन्ति देवो नुदेवहिन्दी' पृ. १५९-६८, तम'चटप्पन्न्हापुरिमचरित्व में ऋग्व रित पृ. ४०-१३ प्रजापतिः य दिनीविया का कृयादि नमुना.। प्रसन्न: पुनर तोक्यो नमलतो निविविद विदांवरः । बिहार चारस्वास्विर निवन्न वनुशायूं सनीन् । उरिगहनादिरास्नवत्प्रनुः प्रवद्रा हिप्पुरच्छुतः।। लढोग्नु स्वभाविवसान्निय यो निर्दय-ज्ञानियान् । बागद परटेन्निसा व ब्रह्मपदानृतेददरः । च दिवईपनेत्रित. तां जननियामवनिरंन्नः । पृतनुतोन्न नान्निन्दनो जिनो विन्मुन्वन्दादिनः ॥ यंदतोत्र, १.२-५ प्रादिनं पृथ्बिीनायनादिमं निप्परिन् । मादिनं तीर्थनार्य व ऋषन्वानिनं स्टुनः ! -म्पिटियलागापुस्मत्रस्त्रि, १. १.३
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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