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योग- परम्परा मे श्राचार्य हरिभद्र की विशेषता
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प्राचीन समय की यह अवधूत - परम्परा महादेव, दत्त अथवा वैसे किसी पौराणिक योगी के नाम पर प्रचलित पथो मे किसी-न-किसी रूप मे आज भी बची हुई है । अवधूतगीता यद्यपि एक अर्वाचीन ग्रन्थ है, फिर भी उसमे अवधूत का थोडा परिचय प्राप्त हो सके ऐसी बाते भी उल्लिखित है । जैन और बौद्ध परम्परा मे भी इस अवधूत का स्वरूप सुरक्षित रहा है और उच्च प्रकार की प्राध्यात्मिक साधना के एक उपाय के रूप मे इस चर्या का आदर किया गया है । आचारांग, जो उपलब्ध जैन ग्रागमो मे सर्वाधिक प्राचीन समझा जाता है, उसमे एक अध्ययन ( प्रथम श्रुतस्कन्ध का छठा अध्ययन ) आता है जिसका नाम ही 'धूत' है । उसमे उत्कट त्यागी की जीवनचर्या के उद्गार आते हैं, जो कि जैन परम्परा मे अन्यत्र वरिणत ऋषभदेव अथवा महावीर के जीवन की झांकी कराते है । बौद्ध परम्परा मे यद्यपि जैन परम्परा की भाँति, तप अथवा देहदमन के ऊपर भार नहीं दिया गया, तथापि उसमे भी समाधि के अभिलाषी के लिए प्रथम कैसा जीवन आवश्यक है यह बतलाने वाले तेरह धूतांगो का विस्तार से वर्णन मिलता ही है ।" धूताध्ययन मे आने वाली जैन चर्या, धूतांगो के वर्णन मे आने वाली बौद्ध-चर्या तथा अवधृत - परम्परा के वर्णन मे आने वाली अवधूत योगी की चर्या इन तीनों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले को ऐसा ज्ञात हुए बिना नही रहेगा कि ये तीनों शाखाएँ मूल मे एक ही परम्परा के तीव्र मृदु प्राविर्भाव है, जैन और बौद्ध परम्परा मे श्रवघृत के स्थान मे 'घृत' इतना ही पद प्रयुक्त हुआ है । ऐसा होने पर भी प्राचीन 'ग्रवधूत' पद तपस्वी, योगी या उत्कट साधक के अर्थ मे इतना अधिक रूढ हो गया है कि कबीर और जैन साधक ग्रानन्दघन जैसे भी अपनी कृतियो मे 'अवधू' पद का बार-बार प्रयोग करते है | 5
६ शून्यागारे समरसपूतस्तिष्ठन्नेक सुखमवधूत ।
चरति हि नग्नस्त्यक्त्वा गवं विन्दति केवलमात्मनि सर्वम् ॥
७. विमुद्धिमग्ग धूतंगनिद्द स, पृ ४० ।
८. कवीर
- श्रवधूतगीता अ १, श्लोक ७३
अवधू कुदरत की गति न्यारी ।
रक निवाज करे वह राजा भूपति करें भिखारी ॥१२॥ अव छोडहू मन विस्तारा |
सो पद हो जाहि ते सद्गति पार ब्रह्म ते न्यारा ॥१३॥ अवधू अन्य कूप अंधियारा ।
या घट भीतर सात समुन्दर याहि मे नद्दी नारा ॥७७॥