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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
जैन आगमो मे अनेक स्थानो पर तापसो का वर्णन श्राता है । महाभारत" एवं पुराणो मे भी तापसो के आश्रमो का वर्णन आता है । इन तापसों की चर्या विशेष देहदमनपरायण होने पर भी अवधूतो की अपेक्षा कुछ कम उग्र होती है। तापस भी नग्न अथवा नग्न जैसे रहते, मूल, कंद, फल ग्रादि के द्वारा निर्वाह करते और यदि अन्न लेते भी तो भिक्षा के द्वारा लेते । अवधूत कपाल - खोपडी रखते, तो तापस सिर्फ लकडी का अथवा वैसा कोई पात्र रखते और कई तो पाणिपात्र भी होते और भिक्षाटन करते । इनमे से अनेक तापस पचाग्नि तप करते १२ और किसीन-किसी प्रकार का सादा अथवा उग्र जीवन जीकर मन को वश मे लाने का प्रयत्न करते । अधिक जाडा और ग्रधिक गरमी सहन करना - यह उनकी खास तपोविधि थी । श्राज भी ऐसे तापस केले - दुकेले और कभी-कभी समूह मे मिलते ही हैं । परन्तु अवधूत और तापस वर्ग की तपश्चर्या मे भी सुधार होने लगा । पंचाग्नि तप के स्थान पर मात्र सूर्य का प्रातप लेना ही इष्ट माना गया । चारो दिशाओ मे लकडियाँ जलाकर तप करने मे हिंसा का तत्त्व मालूम पडने पर उस विधि का परित्याग किया गया । पत्र, फल, मूल, कन्द जैसी वनस्पति पर निर्वाह करना भी वानस्पतिक जीवहिंसा की दृष्टि से त्याज्य समझा गया । जटा धारण करने पर जूं या लीख का होना सम्भव है, इस विचार से सर्वथा मुण्डन इष्ट माना गया, और उस्तुरे से सर्वथा मुण्डन कराने के बजाय अपने हाथ से ही बालो को खीचकर लुचन करना निरवद्य समझा गया ।
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श्रवघू भूले को घर लावै सो जन हमको भावे ।
घरमे जोग भोग घर ही मे घर तजि वन नहि जावै ॥ १११ ॥
— कबीर वचनावली, द्वितीय खण्ड
श्रानन्दघन-
अवधू नट नागर की बाजी जाणें न वाभरण काजी ||५|| वधू क्या सोवे तन मठ मे जाग विलोकन घट मे ॥७॥ अवधू राम राम जग गावे, बिरला अलख लगावे ॥२७॥
- श्री मोतीचन्द गि कापडिया द्वारा संपादित "श्री श्रानन्दघनजीना पदो" ६ 'भगवती' गत अवतरणो के लिए देखो प्रस्तुत व्याख्यान की पादटीप २ | इसके श्रतिरिक्त देखो 'चउप्पन्नमहापुरिसचरिय' पृ० ४०, 'वसुदेवहिण्डी' पृ० १६३ |
१०. 'महाभारत' के लिए देखो प्रस्तुत व्याख्यान की पादटीप २ ।
११ पुष्कर तीर्थ की उत्पत्ति के प्रसग मे वन का वर्णन 'पद्मपुराण' मे आता है, जिसमे देवो द्वारा की गई तपश्चर्या का उल्लेख है । देखो 'पद्मपुराण' श्रध्याय १५, श्लोक २२ । पुष्कर तीर्थ मे रहनेवाले तपस्वियो के वर्णन के लिए देखो 'पद्मपुराण' श्रध्याय १८, श्लोक 8 से 1
१२ 'महाभारत' श्रनुशासनपर्व १४२ ६ ।