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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र है कि उस काल मे सौराष्ट्र मे अनेक धर्म-पंथ प्रवर्तमान थे । उनमे से जैन 3 और बौद्ध के अस्तित्व के बारे में तो प्रश्न ही नहीं है, परन्तु ऊपर जिनका उल्लेस किया है वे वैष्णव एवं शैव आदि इतर पौराणिक धर्म भी प्रवर्तमान होने चाहिएं। प्राकृत भाषा द्वारा उसने अपने राज्य के दूसरे अनेक भागो की प्रजा को जिस धर्म के अनुपालन का उद्बोधन किया है वह मुख्यतया मानव-धर्म है,३४ कोई विशिष्ट पाथिक धर्म नही, और मानव-धर्म की सच्ची नीव तो योग के अंगो पर अधिष्ठित है। बुद्ध ने
३३ जैन पागम 'उत्तराध्ययन' (अ० २२), 'अतगड' श्रादि मे उल्लिखित जैन परम्परा के अनुसार वाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ और उनके भाई रथनेमि आदि तपस्वियो का सम्वन्ध सौराष्ट्र के साथ है ('काव्यानुशासन भा० २, प्रस्तावना पृ० २१)। अशोक के पौत्र सम्प्रति ने उज्जयिनी मे रह कर जब मौर्यशासन चलाया तब उसने पितृपरम्परा के देशो मे जैन-धर्म का विशेष प्रचार एव प्रसार किया। उन देशो में आन्ध्र, द्रविड आदि नये प्रदेश भी आते है ('वृहत्कल्प' गाथा ३२७५-८६, 'निशीथ' गाथा २१५४, ४४६३-६५, ५७४४५८, 'निशीथ एक अध्ययन' पृ० ७३) मतलव कि उसे आधुनिक मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान जैसे प्रदेशो मे नया प्रचार करने की आवश्यकता नहीं थी। कालकाचार्य की शकशाहियो को बसाने की कथा प्रसिद्ध है ('निशीथ' गा० २८६०), प्राचार्य वरसेन के पास गिरनार पर दक्षिण देश के जैन साधु अध्ययन करने के लिए आये थे ऐसी बात दिगम्बरीय परम्परा मे सुविख्यात है ('धवला' प्रथम भाग, प्रस्तावना), नयचक्र के प्रसिद्ध प्रणेता मल्लवादी और उनके गुरु का वलभी के साथ का सम्बन्ध कथानो मे निर्दिष्ट है ('प्रभावकचरित्र' प्रवन्ध १०) और वलभी मे जैन आगमो की वाचना वहा जैन परम्परा के प्राचीन दृढमूल अस्तित्व को सूचक है, वलभी मे 'विगेपावश्यकभाष्य' के कर्ता जिनभद्र हुए थे ('भारतीय विद्या' ३-१, पृ० १६१)-इन सब बातो को ध्यान में लेने पर सौराष्ट्र मे जन धर्म का प्रचार प्रागैतिहासिक काल से किसी न किसी रूप मे चला आता था ऐसा कहा जा सकता है। यद्यपि प्राचीन शिलालेखीय अथवा ताम्रपत्रीय सामग्री उपलब्ध नहीं हुई है, तथापि साहित्यिक परम्परा के आधार पर यह बात सिद्ध हो सकती है। विशेप के लिए देखो 'मैत्रककालीन गुजरात' पृ०४१६-२७ ।
३४ " .. साधु मातरि च पितरि च सुलूसा मितामस्तुतज्ञातीन वाम्हणसमणान साधु दान प्राणान साधु अनारभो अपव्ययता अपभाडता साधु . .
-अशोक के शिलालेख मे तीसरा शासन " .. अनारभो प्राणान अविहीसा भूतान ज्ञातीन सपटिपती ब्रह्मरणसमरणान सपटिपती मातरि पितरि सुस्रुसा थैरसुस्रुसा .।"
-अशोक के शिलालेख मे चौथा शासन " . .तत इद भवति दासभतकम्हि सम्यप्रतिपती मातरि पितरि साधु सुनुसा मितसस्तुतजातिकान ब्राह्मणसमणान साधु दान प्राणान अनारभो साधु . ."
-अशोकके शिलालेखमे ग्यारहवां शासन इन मूल उद्धरणो के अतिरिक्त वत्तीसवी पादटीप मे दिये गये बारहवें शासन के अनुवाद पर से भी अशोक के धर्म-विषयक व्यापक दृष्टि-विन्दुका ख्याल आ सकता है।