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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र अक्षपाद और बादरायण जैसो के सूत्र-ग्रन्थो मे पर-मत की समीक्षा तो है, पर उनमे कोई कटु शब्द नही आता; परन्तु इन्ही ग्रन्थो के व्याख्याता आगे जाकर खण्डन-मण्डन के रस मे इतने वह गये कि वे प्रतिवादी को 'पुरुपापसद', 'प्राकृत', 'म्लेच्छ' या 'बाह्य' जैसे विशेषणो से विभूपित करने मे गौरव मानने लगे। प्रतिवादियो का तिरस्कार करने वाली ऐसी वृत्ति के प्रभाव से बौद्ध और जैन भी अलिप्त नही रह सके हैं। ब्राह्मण-श्रमण परम्परा का ऐसा धार्मिक वातावरण चारो ओर फैला हुआ था। इसीमे हरिभद्र का जन्म और संवर्धन हुना। उन्होने जव श्रमणदीक्षा अगीकार की तब उस परम्परा में भी उन्हे वैसे ही वातावरण ने घेर लिया। इसीलिए उनके कई प्राकृत-सस्कृत ग्रन्थो मे हम उन्हे परवादी के ऊपर करारे शब्दप्रयोग करते हुए कभी-कभी देखते है ।
परन्तु हरिभद्र का मूलगत स्वभाव कुछ दूसरे ही प्रकार का था । मानो उनके मूलगत संस्कारो में समत्व एवं मध्यस्थता मुद्रालेख के रूप मे ही न हो इस तरह वह संस्कार परापूर्व से चले आनेवाले कदाग्रह और मिथ्याभिनिवेश के चक्र को भेद कर बाहर आया और वह उनकी, कदाचित् पीछे से लिखी गई, उपर्युक्त दो कृतियों मे साकार हुआ।
पड्दर्शनसमुच्चय सर्वप्रथम पड्दर्शनसमुच्चय को लेकर विचार करे। पहला प्रश्न यह होता है कि हरिभद्र के इस ग्रन्थ के जैसी कृतिया पहले किसी की थी ? जहा तक मैं जानता हूँ वहा तक हरिभद्र से पहले प्रसिद्ध भारतीय विविध दर्शनो का प्रतिपादनात्मक दृष्टि से निरूपण करने वाली किसी की कृति हो तो वह सिद्धसेन दिवाकर की है, ऐसा कहा जा सकता है। दिवाकर ने उनकी उपलब्ध कृतियो मे से कई कृतियां उसउस दर्शन का मात्र निरूपण करने के लिए रची है । यह सच है कि वे कृतियाँ पाठकी भ्रष्टता एवं व्याख्या के अभाव इत्यादि कारणो से इस समय बहुत स्पष्ट अर्थ प्रकट नहीं करती, फिर भी उन कृतियो के पीछे दिवाकर की दृष्टि तो मुख्य रूप से उस-उस दर्शन के स्वरूप का निरूपण करने की है, नही कि उनके मन्तव्यो का खण्डन करने की । अत अन्य कोई वैसी पूर्वकालीन कृति उपलब्ध न हो वहा तक ऐसा कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शनो का प्रतिपादनात्मक दृष्टि से निरूपण करनेवाली सर्वप्रथम कृति सिद्धसेन दिवाकर की है । उसके बाद हरिभद्र का स्थान प्राता है ।
४ डॉ इन्दुकला ही झवेरी 'योगशतक' (हिन्दी) प्रस्तावना पृ १७-८ ।