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दार्शनिक परम्परा मे आचार्य हरिभद्र की विशेषता हरिभद्र ने अपनी इस कृति मे छः दर्शनो का निरूपण किया है। सिद्धसेन की दार्शनिक कृतिया पद्यबद्ध है, तो हरिभद्र की यह कृति भी पद्यबद्ध है। सिद्धसेन की कृतिया अशुद्धि एवं व्याख्या के अभाव के कारण बहुत अस्पष्ट और सन्दिग्ध है, तो हरिभद्र की कृति पाठ-शुद्धि और विशद व्याख्या के कारण एकदम स्पष्ट और निश्चितार्थक है। यद्यपि सिद्धसेन की कृतिया उस-उस दर्शन के कतिपय प्रमेयो की चर्चा करती है, परन्तु सिद्धसेन कभी-कभी वीरस्तुति आदि मे स्वमान्यता का स्थापन करते समय इतर मन्तव्यो की विनोदप्रधान समालोचना करते है, और विवादरत स्व-पर सभी दार्शनिको के ऊपर विनोदमूलक तार्किक कटाक्ष भी करते है, जबकि हरिभद्र तो बिलकुल सीधे-सादे ढंग से दर्शनो का निरूपण करते है। इन दोनो की कृतियो मे दूसरा भेद यह है कि सिद्धसेन ने तो उस-उस दर्शन के मात्र तत्त्वो का ही निरूपण किया है और उन दर्शनो के मान्य देवता आदि की खास बात नही कही, जबकि हरिभद्र प्रत्येक दर्शन के निरूपण के समय उस-उस दर्शन के मान्य देवता का भी सूचन करते है।
हरिभद्र के पश्चात् उनके षड्दर्शनसमुच्चय का स्मरण कराने वाली लगभग पाच कृतियो का यहा उल्लेख करना चाहिये । उनमे से एक अनातक क 'सर्वसिद्धान्त
वदन्ति यानेव गुणान्वचेतस. समेत्य दोपान् किल स्वविद्विप । त एव विज्ञानपथागता सता त्वदीयसूक्तप्रतिपत्तिहेतवः ॥ ६ ॥ कृपा वहन्त कृपणेपु जन्तुपु स्वमासदानेवपि मुक्तचेतस ।। त्वदीयमप्राप्य कृपार्थकौशल स्वत कृपा सजनयन्त्यमेधस ॥७॥ समृद्धपत्रा अपि सच्छिखडिनो यथा न गच्छन्ति गत गरुत्मत । सुनिश्चितज्ञेयविनिश्चयास्तथा न ते गत यातुमल प्रवादिन ॥१२॥
___-वीरस्तुतिद्वात्रिंशिका-१ ग्रामान्तरोपगतयोरेकामिषसगजातमत्सरयो । स्यात् सौख्यमपि शुनोत्रोरविवादिनोर्न स्यात् ॥१॥ तावद् वकमुग्धमुखस्तिष्ठति यावन्न रगमवतरति । रगावतारमत्त काकोद्धतनिष्ठुरो भवति ॥३॥ अन्यत एव श्रेयास्यन्यत एव विचरन्ति वादिवृषाः । वाक्सरम्भ क्वचिदपि न जगाद मुनि शिवोपायम् ॥ ७॥
__-वादद्वात्रिंशिका दैवखात च वदन आत्मायत्त च वाड्मयम् । श्रोतार सन्ति चोक्तस्य निर्लज्ज. को न पण्डित ।
-न्यायद्वानिगिका विशेष के लिए देखो 'दर्शन अने चिन्तन' पृ ११४४ से ।