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दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान एव योग-परम्परा के सम्बन्ध के सूचक प्रमाण अधिकाधिक मिलते ही है,२४ परन्तु यह सम्बन्ध एकदम अचानक मौर्य युग मे ही हुआ ऐसा नही माना जा सकता । बुद्धमहावीर के पहले की शताब्दियो मे, पौराणिक वर्णन के कथनानुसार, यादवो का प्राधान्य द्वारका और गिरिनगर मे था। सात्वत भागवत-परम्परा के साथ संकलित है । यादवपुगव कृष्ण तो भागवतपरम्परा के सर्वसम्मत वैष्णव अवतार माने गये है। यादवो के दूसरे एक तपस्वी नेमिनाथ जैन-परम्परा के तीर्थकर अथवा विशिष्ट अवतार माने जाते हैं। यादववंश के प्रभाव एवं विस्तार के साथ मुख्यत' वैष्णव धर्म का प्रसार पश्चिम से आगे बढकर दक्षिण आदि दूसरे देशो मे हुआ हो ऐसा लगता है । शैव-परम्परा का कोई-न-कोई प्राचीन स्वरूप गुजरात मे पहले ही से रहा है । वह सिन्धु-प्रदेश मे से गुजरात की अोर आया हो अथवा दूसरे चाहे जिस मार्ग से परन्तु इतना तो सुनिश्चित प्रतीत होता है कि गुजरात की भूमि मे शैवपरम्परा के मूल विशेष प्राचीन है । २५ प्रभास पाटन का ज्योतिर्धाम और वैसे दूसरे पौराणिक शवधाम यहां आये हैं तथा ग्राम, नगर एवं उच्च-नीच सभी जातियो मे शिव के सादे स्वरूप की पूजा परापूर्व से ही प्रचलित रही है । शैव परम्परा के मुख्य देव है रुद्र या महेश्वर । न्याय-वैशेपिक परम्परा मे ईश्वर को कर्ता का स्थान कब मिला यह तो अज्ञात है, परन्तु जब कर्ता के रूप मे ईश्वर ने उस परम्परा मे स्थान प्राप्त किया तब उस ईश्वर का वर्णन विष्णु या ब्रह्मा के रूप मे नही किन्तु महेश्वर या पशुपति के रूप मे मिलता है । २६ ।
वैष्णव परम्परा के उत्तरकालीन तत्त्वज्ञान-विपयक विकास को देखने पर ऐसा ज्ञात होता है कि उस परम्परा का तत्त्वज्ञान साख्य-विचारसरणी के ऊपर ही रचित है । २७ मध्व के अतिरिक्त अब तक की ऐसी कोई वैष्णव परम्परा नही दिखाई पडती, जिसके तत्वज्ञान के मूल सिद्धात साख्य-परम्परा को छोड दूसरी किसी परम्परा मे से लिए गए हो । शैव परम्परा की अधिकाश शाखाप्रो का सम्बन्ध न्यायवैशेषिक परम्परा के साथ रहा है। जैन-परम्परा का तत्त्वज्ञान यो तो साख्य और न्याय-वैशेषिक परम्परा से सर्वथा स्वतत्र है, फिर भी उसके अनेक अंश ऐसे है जिनमे
२४. देखो गिरनारके शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण अशोकका शिलालेख ।
२५ देखो 'शवधर्मनो सक्षिप्त इतिहास' पृ० १२६, 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १-२, पृ० २२१, २२६-३२ ।
२६ देखो 'प्रशस्तपादभाष्य' गत सृप्टिप्रक्रिया । २७ देखो 'भारतीय तत्त्वविद्या' पृ० ५७-८, १२३, १३४-५ ।