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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र श्रमण-मार्ग की जिन विविध गाखायो का फैलावा हुया उनके मूल में भी इस द्र की योग-साधना के किसी न किमी अंग का समावेश और विकास देखा जाता है यह सब देखने पर इस समय सामान्य रूप से इतना कहा जा सकता है कि योगपरम्परा के समत्वमूलक और समलपोपक अगो का उद्भवस्थान सिन्धु-संस्कृति के प्रदेशों मे कही न कही होना चाहिये, परन्तु उद्भवस्थान विपयक यह अस्फुट चर्चा हमे बहुत दूर नहीं ले जा सकती, फिर भी इसके प्रसार का प्रश्न उतना अटपटा और उलझन ने भरा हुआ नही है ।
२. प्रसार दर्शन और योग की परम्परा यो तो भारत के कोने-कोने में फैली हुई देखी जाती है, परन्तु इसके प्रसार के इतिहास युग के मुख्य केन्द्र दो या तीन है: (१) पूर्वभारत मे मगध, उत्तर विहार, और काशी-कोसल का केन्द्र, (२) पश्चिमोत्तर प्रदेश मे तक्षशिला, शलातुर और कुरु-पञ्चाल का मध्य प्रदेश । वैदिक वाडमय, महाभारत रामायण, दर्शन-सूत्र और उनके कतिपय भाप्य तथा कई प्राचीन पुराण इत्यादि ब्राह्मण-प्रधान संस्कृतमय साहित्य के उद्भवस्थान अधिकांशत पश्चिमोत्तर भारत, कुरु-पाञ्चाल, काशी-कोसल और बिहार मे आये हैं, तो प्राकृत भाषा मे निबद्ध श्रमणप्रधान आगम-पिटको के उद्भवस्यान भी उत्तर-विहार, मगध, काशी-कोसल और मथुरा आदि के आस पास ही देखे जाते हैं । सौराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि पश्चिम के भाग तथा दक्षिण एवं दूर-दक्षिण के प्रदेश में ऐसा कोई स्थान दृष्टिगोचर नहीं होता, जहां कि इतिहास युगीन संस्कृतप्रधान या प्राकृत-प्रधान साहित्य के प्राचीन स्तर की निमिति का निर्देश मिलता हो। इस पर से इतना सार निकाला जा सकता है कि मूल उद्भवस्थान अविदित होने पर भी दर्गन एवं योगपरम्परा के उपलब्ध सस्कृत-प्राकृत साहित्य की रचना बहुत करके पश्चिमोत्तर, मध्य एवं पूर्व देश मे हुई है, और वहाँ से ही भारत के अन्य सब भागो मे अनुक्रम से उसका प्रसरण हुया है। झाना ही नहीं, भारत के वाहर भी उसका प्रभावशाली प्रसार प्राचीन समय मे ही होता रहा है । ३
३. गुजरात के साथ सम्बन्ध गुजरात का अर्थ यहाँ विस्तृत है। इसमे सौराष्ट्र, मानर्त तथा उत्तर एवं दक्षिण गुजरात का भी समावेश विवक्षित है । मौर्य युग से तो गुजरात के साथ दर्शन
२३. देवो-श्री राहल साकृत्यायनकृत 'वौद्ध सस्कृति ।'