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दार्गनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [४६ मानना पडता और इस मान्यताको स्थिर रखने के लिए उसे वेद की भाँति ब्राह्मण
और ब्राह्मणत्व जाति की सर्वोपरिताका स्वीकर करना ही पडता। दूसरा वर्ग इस मान्यता से सर्वथा उल्टा ही प्रतिपादन करता । उसके मन किसी भी सत्पुरुषका वचन और आचार वेद और वैदिक कर्म के समान ही प्रतिष्ठित है। उसके मन कोई एक जाति मात्र जन्म के कारण ही श्रेष्ठ और दूसरी कनिष्ठ, ऐसा नहीं है। यह मतभेद जैसे-जैसे उग्र होता गया वैसे-वैसे आस्तिक और नास्तिक की व्याख्या भी नये ढंग से होने लगी। वेदवादियों ने कहा कि जो वेदको न माने वह नास्तिक है, २० फिर भले ही वह आत्मा, पुनर्जन्म आदि क्यों न मानता हो। दूसरी ओरसे विरोधीवर्ग ने कहा कि जो हमारे शास्त्र न माने वह मिथ्यादृष्टि या तैर्थिक है। इस प्रकार आस्तिकनास्तिक पद का अर्थ तात्त्विक मान्यता से हटकर ग्रन्थ और उसके पुरस्कर्ताओं की मान्यता में रूपान्तरित हो गया।
हरिभद्र के समय तक यह अर्थगत रूपान्तर दृढमूल हो चुका था, फिर भी हरिभद्र इस साम्प्रदायिक वृत्ति के वशीभूत न हुए, और वेद माने या न माने, जैनशास्त्र माने या न माने, ब्राह्मणत्व की प्रतिष्ठा करे या मानव मात्र की, परन्तु यदि वह आत्मा, पुनर्जन्म आदि को माने तो उसे प्रास्तिक ही कहना चाहिए-हरिभद्र की यह दृष्टि पारिगनि जितनी प्राचीन तो है ही, परन्तु उत्तरकाल मे इस दृष्टि मे जो साम्प्रदायिक संकुचितता आई उसके वश हरिभद्र न हुए। उन्होंने कह दिया कि वैदिक या अवैदिक सभी आत्मवादी दर्शन आस्तिक है ।२१ इमे हरिभद्र की सम्प्रदायातीत समत्व दृष्टि न कहें तो और क्या कहें ?
शास्त्रवार्तासमुच्चय ' अव हम हरिभद्र के दूसरे दार्शनिक ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय को लेकर विचार करे कि उन्होने इस ग्रन्थ के द्वारा दार्शनिक परम्परा मे असाधारण कहा जा सके ऐसा कौनसा दृष्टिबिन्दु दाखिल किया है ? इसके लिए यदि हम शास्त्रवार्तासमुच्चय की इतर परम्परा के अनेक दार्शनिक ग्रन्थो के साथ तुलना करें तभी कुछ स्पष्ट विधान किया जा सकता है । हरिभद्र के पहले भी वैदिक, बौद्ध और जैन परम्पराओ मे अनेक
२०. योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विज । स साधुभिर्वहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक ॥
-मनुस्मृति २ ११ २१ एवमास्तिकवादाना कृत सक्षेपकीर्तनम् ।
-पड्दर्शनसमुच्चय