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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र क्रम-विपर्यास क्यो किया, ऐसा प्रश्न तो होता ही है। ऐसा मालूम पड़ता है कि राजशेखर अपने पूर्ववर्ती और समकालीन दार्शनिको की अभिनिवेशपूर्ण वृत्ति से पर नही हो सके थे, जब कि हरिभद्र वैसी वृत्ति से पर होकर अपने क्रम की संयोजना करते हैं । १८ इसीलिए दूसरे ग्रन्थो मे बौद्ध, नैयायिक आदि दर्शनो का सयुक्तिक और भारपूर्वक खण्डन करने पर भी जब षड्दर्शनसमुच्चय की रचना करने के लिए वह प्रेरित हुए तब उन्होने अपनी पूर्वकालीन अभिनिवेशवृत्ति का परित्याग करके क्रम का विचार किया होगा। इससे मानो वह ऐसा सूचित करना चाहते है कि जो परदर्शनी और परवादी है वह भी अपनी भूमिका और सस्कार के अनुसार वस्तुतत्त्व का प्रामाणिक निरूपण करता है, तो फिर उसमे पर और स्व-दर्शन के श्रेष्ठत्वकनिष्ठत्व का प्रश्न ही कहाँ रहता है ? हरिभद्र की इस दृष्टि मे ही समत्व और तटस्थता के बीज सन्निहित हैं, और उनकी प्रसिद्ध उक्ति
पक्षपातो न मे वीरे न हुष कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य. परिग्रह ।। की याद दिलाती है।
'आस्तिक' और 'नास्तिक' पद लोक एवं शास्त्र मे विख्यात हैं । अब हम इन्हे लेकर हरिभद्र की उदात्त दृष्टि का विचार करें । परलोक, आत्मा, पुनर्जन्म जैसे अदृष्ट तत्त्व न मानने वाले को, काशिका-व्याख्या के अनुसार, पाणिनि ने नास्तिक और माननेवाले को आस्तिक कहा है । १६ इस प्रकार आस्तिक एवं नास्तिक पदो का अर्थ केवल आध्यात्मिकवाद और बहिरर्थवाद में मर्यादित था, परन्तु कालक्रम से आस्तिकपरम्परा मे भी अनेक दर्शन एवं सम्प्रदाय पैदा हुए । एक वर्ग ऐसा था जो समग्र चिन्तन और समस्त व्यवहार को वेद के आसपास सयोजित करता था, तो दूसरा वर्ग इसका सर्वथा विरोधी था। वेद को माने उसे वैदिक यज्ञ आदि कर्मकाण्ड, उसके सूत्रधार पुरोहित ब्राह्मण और ब्राह्मणत्व जाति को भी अनिवार्यत
१८. अनेकान्तजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय और धर्मसग्रहणी मे इतर दर्शनो का खण्डन हरिभद्रसूरि ने किया है।
१६ 'अस्ति - नास्ति - दिप्ट मति'-पाणिनि ४ ४ ६०
न च मतिसत्तामात्र प्रत्यय इष्यते । कस्तहि ? परलोकोऽस्तीति यस्य मतिरस्ति स प्रास्तिक । तद्विपरीतो नास्तिक.| --काशिका
विप के लिए देखो 'अध्यात्म विचारणा' (हिन्दी) पृ १०-१। तथा 'दर्शन अने चिन्तन' पृ ७०१॥