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________________ [४७ दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता निराकरण करना। सर्वदर्शनस ग्रहकार चार्वाक मत का निरसन बौद्ध द्वारा और बौद्ध मत का निरसन जैन मत द्वारा कराते है और अन्त मे जैन मत का निरसन रामानुज द्वारा कराते है। इस प्रकार वह अपने प्रतिपादित सोलह दर्शनो मे मूर्धन्यस्थान पर अद्वैत वेदान्त दर्शन को रखते है। हम इस सक्षिप्त वर्णन से इतना तो देख सकते है कि जिस प्रकार सर्वसिद्धान्तसग्रहकार पूर्व-पूर्व के कई दर्शनो का निरास करके अन्त मे मात्र वेदान्त को प्रस्थापित करते है, १६ उसी प्रकार सर्वदर्शनसंग्रहकार भी करते है। ___ सर्वदर्शनकौमुदी के विपयक्रम और शैली उक्त ग्रन्थो की अपेक्षा भिन्न है। उसमे तीन अवैदिक और तीन वैदिक इस तरह छ दर्शन गिनाकर बाद मे तीन वैदिक दर्शनो की छ. संख्या सूचित की है और तीन अवैदिक दर्शनो मे बौद्ध, जैन और चार्वाक इन तीन को गिनाया है। इन अवैदिक दर्शनो मे से बौद्ध के चार भेद गिनाये है। इन भेदो को ध्यान मे रखे तो ऐसा मालूम होता है कि अवैदिक दर्शनो की सख्या इसके रचयिता के मनमे छ. ही अभिप्रेत है । माधव-सरस्वती सायण-माधवाचार्य की भाँति शाकर अद्वत के कट्टर अनुयायी है। उन्होने अपने शाकर-विषयक मन्तव्य का तीनो प्रस्थानो के १७ सार के रूप मे वर्णन किया है और उसे एक स्वतंत्र प्रस्थान के रूप मे गिनाया है। यद्यपि वह सायण-माधवाचार्य की भाँति पूर्व-पूर्व के दर्शन का उत्तर-उत्तर के दर्शन द्वारा खण्डन करने की शैली नही अपनाते, फिर भी उनकी दृष्टि खण्डन की तो है ही। इससे सर्वथा उल्टा दोनो षड्दर्शनसमुच्चय मे है । राजशेखर चार्वाक की परिगणना दर्शन के रूप मे नही करते, परन्तु दूसरे पाँच या छ दर्शनो को वह हरिभद्र की भाँति श्रास्तिक ही कहते है। हाँ, इतना फर्क अवश्य है कि दोनो जैन होने पर भी हरिभद्र अपने जैन दर्शन को प्रथम स्थान न देकर बौद्ध, न्याय और साख्य के पश्चात् चौथा स्थान देते है। सर्वसिद्धान्तप्रवेशक मे भी जैन दर्शन को तीसरा स्थान दिया गया है । उसमे दर्शनो का क्रम इस प्रकार है : नैयायिक, वैशेपिक, जैन, साख्य, बौद्ध, मीमासक और चार्वाक । परन्तु राजशेखर जैन दर्शन को प्रथम स्थान देते हैं । राजशेखर ने हरिभद्र के आधार पर ही अपने ग्रन्थ की रचना की है, फिर भी यह १६ देवो 'सर्वसिद्धान्तसग्रह' मे वेदान्तपक्ष, श्लोक २६ से, ५६ से तथा ६६ से । १७ वार्तिक, विवरण एव वाचस्पति-ये तीन प्रस्थान माने जाते हैं। इसके विशेप परिचय के लिए देखो 'सर्वदर्शनकौमुदी' पृ ११३-१४ (त्रिवेन्द्रम् सस्कृत सिरीज़ क्रमाक १३५)।
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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