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समदर्गी प्राचार्य हरिभद्र किसी अन्य तत्वज्ञान की अपेक्षा माग्य तत्वज्ञान की कितनी अधिक व्यापकता है यह इमने सूचित होता है, परन्तु जब वह व्यामोक्त दर्शन का निरूपणा करते है, उस समय भी उनकी दृष्टि तो हरिकी और है। इनसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्यकार वेदान्ती होने पर भी भारत के केन्द्र स्थान में रहे हा विप्रा या हरिका उपासक है। (२) इनकी दूसरी विशेषता यह है कि सर्वसिद्धान्तमनहकार सभी दर्जनो के अन्त में वेदान्त का निरूपण करते है और उसी को ननी दर्गनों में मूर्वन्य मानते हो ऐसा प्रतीत होता है, फिर भी वह महाभारत की भांति भागवत के भी परम भक्त मालूम होते है। इनीले अन्त मे वह कहते हैं कि इस अववनमार्ग का उपदेश कृष्ण ने उद्धव को भागवत में दिया है ।१५ सर्वसिद्धान्तसंग्रह की इस सामान्य समालोचना पर ने देखा जा सकता है कि इसके लेखक अवैटिक चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शनो को कैसी लाघव दृष्टि से देखते हैं। यदि एक ही विश्वव्यापी परम-तत्त्व को भिन्न-भिन्न भूमिका से देखने वाले न्याय आदि दर्शनो को वह प्राग्निक समझते हैं, तो उसी तत्त्व को अपनी भूमिका और संस्कार के अनुसार देखने वाले चार्वाक आदि दर्शनो को वह आस्तिक क्यों नहीं कहते ?-ऐसा प्रश्न किसी भी तत्स्य विचारक को हुए बिना नहीं रह सकता। इसका उत्तर सरल है। वह यह कि नर्वसिद्धान्तस ग्रहकार हों, या सर्वानसंग्रहकार हो, या फिर प्रत्यानभेदकार मधुसूदन सरस्वती हो, इन सबके मन में दार्गनिक चिन्तन मे वेदरक्षा का स्थान मुत्य है, इसीने वे सर्वप्रथम यह देखते हैं कि कोन वेद को प्रमाण मानता है और कौन नही मानता?
सर्वदर्जनसंग्रह की शैली सर्वसिद्धान्तसंग्रह की शैली से अवश्य अलग पड़ती है, परन्तु उसमे से एक ऐसी व्वनि तो निकलती ही है कि अवैदिक दर्जनो का सर्वया
१५ उक्तोञ्जबूतमार्गश्च कृपणेनवोद प्रति ॥ १८ ॥ श्रीभागवनसने तु पुराणे दृश्यते हि . ।
-सर्वसिद्धान्तसंग्रह, वेदान्तपक्ष 'भागवत' स्कन्ध ११, अध्याय ७, ग्लोक २४ से अवधूतमार्ग का वर्णन शुरू होता है। उसमे ने दो ग्लोक नीचे उद्वत किये जाते हैं -
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहार पुरातनम् । अवधूतस्य नवाद यदोरमिततेजस ॥ २४ ।। अवधूतं हिज कञ्चिच्चरन्तमकुतोभयम् ।
कवि निरीक्ष्य तरुण यदु पनन्छ धर्मवित् ॥ २५ ॥ इसके अतिरिक्त देखो 'भागवत' स्कन्ध ५, अध्याय १०, ग्लोक १६ । स्कन्ध ५, अध्याय ५, लोक २८ मे अवधूत पभ का वर्णन प्राता है।