________________
قاقا
योग-परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता उपाध्यायजी अपनी तर्कशैलीका भी योग्य उपयोग करते है । समग्रतया यह टीका उक्त विशिका के ३५ अनुशीलन के लिए बहुत उपयोगी है।
योगशतक जिनभद्र के ध्यानशतक तथा पूज्यपाद के समाधिशतक जैसी शतपद्यपरिमाण रचनाओ का अनुकरण है। इसमे आये हुए १०१ पद्य आर्या छन्द मे हैं । १९२२ ई० मे मैंने जब इसका उल्लेख किया था उस समय वह उपलब्ध नहीं था। कुछ वर्ष पूर्व उसकी एक ताड़पत्रीय प्रति संशोधक विद्वान् मुनि श्री पुण्यविजयजी को मिली । उसके आधार पर उस ग्रन्थ का सम्पादन डॉ. इन्दुकला झवेरी ने किया है और वह गुजरात विद्यासभा ने १९५६ ई० मे प्रकाशित किया है । ६ मूल का अर्थ, तुलनात्मक विवेचन, महत्त्व के मुद्दो पर अनेक परिशिष्ट तथा विस्तृत प्रस्तावना के कारण यह सस्करण ग्रन्थ के हार्द को समझाने के साथ योगतत्त्व और योगसाहित्य के विषय मे बहुत सी जानकारी प्रस्तुत करता है ।
जब गुजराती विवेचन किया गया और प्रस्तुत व्याख्यान लिखे गये तब योगशतक की टीका का कोई पता न था, पर अभी हाल ही मे उसकी संस्कृत टीका उपलब्ध हुई है, जो स्वोपज्ञ है। वह है तो संक्षिप्त, किन्तु स्वोपज्ञ होने से बहुत महत्त्व की है। इसकी एकमात्र ताडपत्रीय प्रति माडवी (कच्छ) के खरतरगच्छीय ज्ञानभण्डार से प्राप्त हुई है । उसका लेखन-समय वि. सं. ११६५ है । उसका पोथी न० ३८ और प्रति नं० १३४ है । अभी वह टीका अमुद्रित है, परन्तु उसकी फोटोस्टेट कॉपी श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में है। इसकी प्राप्ति का श्रेय मुख्यतया मुनि श्री पुण्यविजयजी को है।
३५. सटीक 'योगविशिका' का हिन्दी सार मैने अनेक वर्ष पहले लिखा था। वह पातजल योगदर्शन तथा हारिभद्री योगविशिका' नामक पुस्तक मे ई स १९२२ मे प्रकाशित हुआ है। उसमे 'योगविशिका के अतिरिक्त पातजल योगसूत्रो की उपाध्याय यशोविजयजी को सस्कृत वृत्ति भी हिन्दी सार के साथ छपी है। इसके अतिरिक्त इसका गुजराती विवेचन आचार्य ऋद्धिसागरजी ने किया है और वह 'योगानुभव सुखसागर तथा श्री हरिभद्रकृत योगविशिका' नाम की पुस्तक मे छपा है। यह पुस्तक श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, वीजापुर (उत्तर गुजरात) ने प्रकाशित की है।
३६ इसका हिन्दी अनुवाद भी गुजरात विद्यासभा ने प्रकाशित किया है ।