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________________ समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र की परम्पराएं अपनी सर्वोपरिता सिद्ध करने के लिए एक या दूसरे मुद्दे पर बहुत वार शुष्क वाद मे उतर जाती हैं। ऐसा एक सर्वज्ञविपयक शुष्क वाद चिरकाल से चला आता है। प्रत्येक परम्परा अपने मूल प्रवर्तक को सर्वज्ञ मानकर इतर परम्परानो में कोई न-कोई क्षति बताती आई है। इसलिए प्रत्येक परम्परा के लिए सर्वज्ञत्व का प्रश्न मानो एक प्राण-प्रश्न बन गया है। सर्वज्ञ कौन, सर्वज्ञत्व का स्वरूप क्या इत्यादि मुद्दो के वारे मे चलनेवाली तत्त्वज्ञानीय चर्चा आध्यात्मिक साधना या योगमार्ग को भी कलुपित न करे अथवा वैसी चर्चा के कारण योग-साधक कुतर्क-जाल में फंस न जाय ऐसे उदात्त ध्येय से हरिभद्र ने इस सब से अधिक नाजुक मुद्दे को लेकर कुतर्क में न पडने की वात असाधारण प्रतिभा एवं निर्भयता से उपस्थित की है। हरिभद्र कहते हैं कि सर्वज्ञत्व के विषय मे चर्चा करनेवाले हम तो हैं अग्दिर्शी या चर्मचक्षु, तो फिर अतीन्द्रिय सर्वज्ञत्व का विशेष स्वरूप हम कैसे जान सकते हैं ?२४ अत उसका सामान्य स्वरूप ही जानकर हम योग मार्ग मे आगे बढ़ सकते हैं । यह है सामान्य स्वल्प अर्थात् निरिण-तत्त्व को जानना और मानना ! ऐसे स्वरूप मे कोई नाम, व्यक्ति अथवा पंथ-भेद नही हो सकता। निर्वाण-तत्त्व का ज्ञान या पाकलन ही सभी सर्वज्ञवादियो का अभिप्रेत सामान्य तत्त्व है-इतना माना तो सर्वज्ञत्व का स्वीकार हो ही गया, और यह न माना तो सर्वज्ञ शब्द की और सर्वज्ञ-विगेप की बड़ाई हांकनेवाला कोई भी सर्वज्ञ को मानता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । ऐसा कह कर हरिभद्र ने पंथ-पंथ और परम्परा-परम्परा के बीच होने वाले सर्वज्ञ-विषयक विवाद २४ तदभिप्रायमज्ञात्वा न ततोऽग्दिशा सताम् । युज्यते तत्प्रतिक्षेपो महानर्थकर पर ।। निशानाधप्रतिक्षेपो यथाऽन्धानामसगत । तद्भदपरिकल्पश्च तथैवाग्दृिशामयम् ।। -योगदृप्टिसमुच्चय, १३७-८. २५ ससारातीततत्त्व तु पर निर्वाणसज्ञितम् । तदधेकमेव नियमाच्छब्दभेदेऽपि तत्त्वत ॥ सदाशिव. परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च । शब्देस्तदुच्यतेऽन्वर्थादेकमेवमादिभि ॥ तल्लक्षणाविसवादान्निरावाघमनामयम् । निष्क्रिय च पर तत्त्व यतो जन्माद्ययोगत ॥ ज्ञाते निर्वाणतत्त्वेऽस्मिन्नसमोहेन तत्त्वत । प्रेक्षावतां न तद्भक्तो विवाद उपपद्यते ।। -योगदृष्टिसमुच्चय, १२७-३०. .
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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