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दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता
[५५ कर्ता-धर्ता ईश्वर की मान्यता मे परिणत होती है और मनुष्य उसे आदर्श मानकर जीवन व्यतीत करता है । हरिभद्र ने सोचा कि मानव-मानस की यह भक्ति या शरणागति की तीव्र उत्कण्ठा असल मे तो कोई बुरी वस्तु नही है । अत. वैसी उत्कट उत्कण्ठाको कोई ठेस न लगे और उसका तर्क एवं बुद्धिवाद के साथ बराबर मेल जम जाय इस तरह ईश्वर-कर्तृत्ववाद का तात्पर्य उन्होने अपनी सूझसे बतलाया । उन्होने कहा कि जो पुरुष अपने जीवन को निर्दोष बनाने के प्रयत्नके परिणामस्वरूप उच्चतम भूमिका पर पहुँचा हो वही साधारण आत्माओ मे परम अर्थात् असाधारण
आत्मा है और वही सर्वगम्य एवं अनुभवसिद्ध ईश्वर है । जीवन जीनेमें आदर्शरूप होनेसे वही कर्ता के रूप मे भक्ति-पात्र एवं उपास्य हो सकता है ।
__ हरिभद्र, मानो मानव-मानस की गहनता नापते हों इस तरह, कहते है कि लोग जिन शास्त्री एवं विधि-निषेधोंके प्रति आदरभाव रखते हो वे शास्त्र और वे विधि-निषेध उनके मन यदि ईश्वरप्रणीत हो, तो वे सन्तुष्ट हो सकते हैं और वैसी वृत्ति मिथ्या भी नही है । अत इस वृत्ति का पोषण होता रहे तथा तर्क एवं बौद्धिक समीक्षाकी कसौटी पर सत्य साबित हो ऐसा सार निकालना चाहिये । यह सार, जैसा ऊपर सूचित किया है, स्वप्रयत्न से विशुद्धि के शिखर पर पहुँचे हुए व्यक्ति को आदर्श मानकर उसके उपदेशो मे कर्तृत्व की भावना रखना। हरिभद्र की कर्तृत्व-विषयक तुलना इससे भी आगे जाती है । वह कहते है कि जीवमात्र तात्त्विक दृष्टि से शुद्ध होने के कारण परमात्मा या परमात्मा का अंश है और वह अपने अच्छे-बुरे भावी का कर्ता भी है । इस दृष्टि से देखे तो जीव ईश्वर है और वही कर्ता है । इस तरह कर्तृत्ववाद की सर्वसाधारण उत्कण्ठा को उन्होंने तुलना द्वारा विधायक रूप दिया है ।३०
३०. ततश्चेश्वरकर्तृत्ववादोऽय युज्यते परम् ।
सम्यन्यायाविरोधेन यथाऽऽहु शुद्धबुद्धय ॥ २०३ ।। ईश्वर परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्या कर्ता स्याद्गुणभावत ॥ २०४ ॥ तदनासेवनादेव यत्ससारोऽपि तत्त्वत । तेन तस्यापि कर्तृत्व कल्प्यमान न दुष्यति ॥ २०५ ।। कर्ताऽयमिति तद्वाक्ये यत केषाचिदादरः । अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशना ॥ २०६ ।। परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मैव चेश्वर । स च कर्तेति निर्दोप कर्तृवादो व्यवस्थित ॥ २०७॥
-शास्त्रवार्तासमुच्चय