SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र साधक नही होता। उनका 'पक्षपातो न मे वीरे'' यह उद्गार स्वाभाविक है, जो यहाँ भी 'मध्यस्थ' पद से सूचित होता है । योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु योगदृष्टिसमुच्चय मे २२८ पद्य है, जबकि योगबिन्दु में ५२७ पद्य हैं। ये सभी पद्य अनुष्टुप् छन्द मे है। योगदृष्टिसमुच्चय की व्याख्या संक्षिप्त है, परन्तु वह स्वोपज्ञ है; जबकि योगबिन्दु की व्याख्या स्वोपज्ञ होगी तो भी वह ज्ञात नही है और जो व्याख्या उपलब्ध है वह अन्यकर्तृक है । यद्यपि उसके कर्ता का नाम अज्ञात है, लेकिन समुच्चय रूप से देखने पर वह व्याख्या बहुत स्पष्ट है । अलबत्ता, उसमे मूल ग्रन्थ का प्राशय समझाने का ठीक ठीक प्रयत्न देखा जाता है, फिर भी उसमे कही कही सम्प्रदाय की छाप दिखाई पड़ती है। आत्मा, चेतन, जीव या चित्त तत्त्व का चेतना के रूप मे स्वतंत्र अस्तित्व, उसकी साहजिक शुद्धि और फिर भी क्लेश एवं अज्ञान की वृत्तियों से शुद्धि का प्रावरण, इस आवरण के क्रमिक ह्रास द्वारा अन्त मे पूर्ण क्षय की शक्यता तथा उसी ह्रासक्रम मे शुद्धि का विकासक्रम, आवरणो के निवर्तक एवं विकासक्रम के साधक अनेक उपायो का जीवन मे अनुभव तथा उसकी कार्यक्षमता-ये योगतत्त्व अथवा अध्यात्मसाधना के मूलभूत सिद्धान्त है । इन सिद्धान्तों के बारे मे किसी भी योग-परम्परा की विप्रतिपत्ति या मत-विरोध नही है, फिर भले ही उनके ब्योरे मे कही मतभेद देखा जाता हो । इसीलिए हरिभद्र ने इन मौलिक-तत्त्वो को केन्द्र मे रखकर उनकी अपनी कही जा सके ऐसी परिभापा की योजना की है और इसीके फलस्वरूप उनकी निरूपणशैली भी उन्ही की अपनी बन पडी है । विशेषता तो यह है कि दोनो ग्रन्थो मे भी उन्होने एक ही परिभापा नही अपनाई। ऐसा लगता है कि उनके मन मे योगतत्त्व का एक ऐसा अनुभव-रसायन तैयार हुआ था, जो भिन्न-भिन्न ग्रन्थो मे भिन्न-भिन्न प्रकार मे व्यक्त हुए विना रह ही नही सकता था। १ पक्षपातो न वीरे न द्वैप कपिलादिषु । युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ ३८ ॥ -लोकतत्त्वनिर्णय इसके साथ तुलना करोअपि पौरुषमादेय शास्त्र युक्तिवोधकम् । अन्यत्त्वार्पमपि त्याज्य भाव्यं न्याय्यकसेविना ॥२॥ युक्तियुक्तमुपादेय वचन बालकादपि । अन्यत्तगामिव त्याज्यमप्युक्त पधजन्मना ॥ ३ ॥ -योगवासिष्ठ, प्रकरण २, अध्याय १५
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy