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योग-परम्परा मे हरिभद्र की विशेषता योगदृष्टिममुच्चय मे योग-विकास के क्रम से सम्बन्ध रखनेवाली पहली परिभाषा तीन विभागों मे दी गई है : (१) इच्छायोग (२) शास्त्रयोग और (३) सामर्थ्य - योग । इसके पश्चात् आगे जाकर इस योगतत्त्व का निरूपण पाठ दृष्टियों अथवा बोध के आठ प्रकार के तारतम्ययुक्त चढा-उतरी के क्रम मे किया गया है, जब कि योगविन्दु में योगतत्त्व को पांच भागो मे विभक्त करके उसका सम्पूर्ण चित्र उपस्थित किया गया है। दोनो ग्रन्थो की परिभाषा को समझाते समय उस-उस योग-भूमिका से सम्बद्ध आवश्यक सभी बातें उन्होंने दी है । इन बातों का निर्देश करते समय उन्होने खास ध्यान यह रखा है कि उस मुद्दे के विषय मे भिन्न-भिन्न योग-परम्परा के प्राचार्य किस तरह एकमत है और वे सब शब्दभेद से किस तरह एक ही वस्तु कहते है। सांख्य-योग, शैव-पाशुपत, बौद्ध और जैन- इतनी परम्परागों के योगाचार्य और उनके अनेक ग्रन्थ हरिभद्र की दृष्टि के समक्ष थे ही। हरिभद्र प्रसिद्ध योगसूत्रकार पतंजलि को भगवान् पतंजलि कहते हैं, जो कि एक साख्य योगाचार्य हैं । वे भास्करबन्धु का भदन्त के नाम से निर्देश करते है, जिससे ज्ञात होता है कि वे बौद्धाचार्य होगे। भगवइत्त के नाम से निर्दिष्ट आचार्य सम्भवतःशैव या पाशुपत होने चाहिए। वे गोपेन्द्र के वचन का बहुमानपूर्वक उल्लेख करते है और उस स्थान पर कहते है कि मै जो वस्तु
कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः। विकलो धर्मयोगो य. स इच्छायोग उच्यते ॥ शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिन । श्राद्धस्य तीव्रवोधेन वचसाऽविकलस्तथा । शास्त्रसन्दर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः शक्त्युद्रेकाद्विशेपेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तम ॥
-~योगदृष्टिसमुच्चय, ३-५ मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा। नामानि योगदृष्टीना लक्षण च निबोधत ।।
योगदृष्टिसमुच्चय, १३ अध्यात्म भावना ध्यान समता वृत्तिसक्षय । मोक्षेण योजनाद् योग एप श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।।
-योगविन्दु, ३१ ५. सता मुनीना भगवत्पतजलिभदन्तभास्क रवन्धुभगवद्दत्तादीना योगिनामित्यर्थ ।
-योगदृष्टिसमुच्चयटीका, १६