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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र उल्लेख 'कहावली' का होने से उसके आधार पर उसका अर्थ जानना यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है।
___"भव-विरह" शब्द के पीछे मुख्यतया जिन तीन घटनामो का संकेत है वे इस प्रकार हैं - (१) धर्म-स्वीकार का प्रसंग १, (२) शिष्यो के वियोग का प्रसंग ३२,
और (३) याचको को दिए जानेवाले आशीर्वाद का और उनके द्वारा किए जानेवाले जय जयकार का प्रस ग 3 3 | इन तीनो प्रसगो को अब हम सक्षेप मे देखे :(१) धर्म-स्वीकार का प्रसंग -
याकिनी महत्तरा जब हरिभद्र को अपने गुरु जिनदत्तसूरि के पास ले गई, तब उन्होने हरिभद्र को प्राकृत गाथा का अर्थ कहा। इसके पश्चात् उन सूरि ने हरिभद्र को याकिनी के धर्मपुत्र बनने की सूचना की। हरिभद्र ने सूरि से पूछा कि धर्म क्या है और उसका फल कौनसा है ? इस पर उन्होने कहा कि "सकाम और निष्काम इस प्रकार धर्म दो तरह का है । इनमे से निष्काम-धर्म का फल तो भव अर्थात् ससार का विरह - मोक्ष है, जबकि सकाम-धर्म का फल स्वर्ग आदि है ।" तब हरिभद्र ने कहा कि "मै तो भव-विरह अर्थात् मोक्ष ही पसन्द करता हू ।' फलत उन्होने प्रव्रज्या लेने का निश्चय किया और जिनदत्तसूरि के पास जैन-प्रव्रज्या अगीकार की। मोक्ष के उद्देश्य से ही वे प्रव्रज्या की ओर अभिमुख हुए थे, अत उनका मुद्रालेख "भवविरह" बन गया। (२) शिष्यो के वियोग का प्रसंग -
चित्तौड मे ही बौद्ध-परम्परा का भी विशिष्ट प्रभाव था। उस परम्परा का अभ्यास करने के लिए गये हुए उनके जिनभद्र एव वीरभद्र नामक दो शिष्यो की, धर्म द्वेप के परिणामस्वरूप, मृत्यु हुई। इससे हरिभद्र उद्विग्न हुए, परन्तु शिष्यो की भाति ग्रंथ भी धर्म की एक महान् विरासत है ऐसा समझकर वे ग्रन्थ-रचना मे उद्युक्त हुए। दीक्षाकालीन "भव-विरह" मुद्रालेख तो उनके मन मे रमाण था ही और शिष्यो की मृत्यु का प्राघात भी मन पर पड़ा हुआ था। इस आघात को शांत करने का बल भी उन्हे अपने मुद्रालेख से ही मिल गया। उन्होने सोचा कि ससार तो अस्थिर ही है, उसमे इष्ट-वियोग कोई असाधारण घटना नहीं है। अत. वैसे
३१ 'कहावली' पत्र ३०० "हरिभद्दो भणइ भयव पिउ मे भवविरहो। ३२. 'प्रभावकचरित्र' शृग ६, श्लोक २०६ । ३३ 'कहावली' पत्र ३०१ अ "चिर जीवउ भवविरहमूरि त्ति ।"