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जीवन की रूपरेखा
[१३ पडा कि वह अपने जन्मदाता माता-पिता को याद नही करते, परन्तु उस महत्तरा का धर्ममाता के रूप मे उल्लेख करने मे गौरव का अनुभव करते है । सामान्यत जैनसाधु अपने विद्या या दीक्षा गुरु आदि का स्मरण करता है, परन्तु शायद ही ऐसा कोई साधु या आचार्य हुअा होगा जिसने किसी साध्वी का स्मरण किया हो । हरिभद्र इस छोटे-से विशेपण से याकिनी द्वारा अपने जीवन मे हुए महान् परिवर्तन का सूचन करते हैं और अपने आपको धर्मपुत्र कहकर मानो उस साध्वी के प्रति जन्मदात्री माता की अपेक्षा भी अधिक बहुमान प्रदर्शित करते है। उनके मनमे ऐसी बात जम-सी गई होगी कि यदि मुझे इस साध्वी का परिचय न हुआ होता, तो मैं परम्परागत मिथ्याभिमान के संस्कार से विद्या के एक ही चौके मे बंधा रह जाता और विद्या का जो नया क्षेत्र खुला है वह न खुलता। ऐसे किसी अनन्य भाव से उन्होने उस छोटे-से विशेषण का अपनी कई रचनाओ मे निर्देश किया है। हरिभद्रसूरि ने स्वयं ही "धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनु" ऐसे विशेषरण का उल्लेख न किया होता, तो उनके जीवन मे घटित असाधारण क्रान्ति की सूचना उत्तरकाल मे बचने न पाती और मुखपरम्परा से यह घटना चली आती, तो भी शायद वह दन्तकथा मे ही परिगणित हो जाती । अतएव मै ऐसा समझता हूँ कि यह विशेषण हरिभद्र के जीवन का सूचक होने से उनके उत्तरकालीन समन जीवन-प्रवाह पर एक विशेष प्रकार का प्रकाश डालनेवाला है।
भव-विरह हरिभद्र के उपनाम के रूप में दूसरा एक विशेषण प्रसिद्ध है और वह है "भवविरह" 3° | उन्होने स्वयं ही अपनी कई रचनाओ मे "भव-विरह के इच्छुक" के नाम से अपना निर्देश किया है । इस "भव-विरह" के पीछे उनका कौनसा सकेत रहा है, इसका उन्होने कही भी उल्लेख नही किया है, परन्तु उनके जीवन का आलेखन करनेवाले अनेक ग्रंथो मे इसका खुलासा देखा जाता है। इनमे सर्वाधिक प्राचीन
__ ३० प श्रीकल्याणविजयजी ने 'धर्मसग्रहणी' की प्रस्तावना मे (पृ १६ से २१) जिनजिन ग्रन्थो की प्रशस्तियो मे 'विरह' शब्द आता है वे सव प्रशस्तिया उद्धृत की है। उन ग्रन्थो के नाम इस प्रकार है-अष्टक, धर्मविन्दु, ललितविस्तरा, पचवस्तुटीका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, पोडशक, अनेकान्तजयपताका, योगविन्दु, ससारदावानलस्तुति, धर्मसग्रहणी, उपदेशपद, पचाशक और सम्बोधप्रकरण ।
___ इसके अतिरिक्त 'कहावली' के कर्ता भद्रेश्वर ने तो उनके 'भवविरहसूरि' नाम का निर्देश प्रवन्ध मे अनेक वार किया है ।