________________
१२]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र उन्होने अपने आपको "धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनु" २७ कहने मे गौरव का अनुभव किया।
यहा से हरिभद्र का विद्या-विषयक दूसरा युग शुरू होता है । वह प्राप्य सभी संस्कृत-प्रधान विद्यालो मे तो निष्णात थे ही, परन्तु प्राकृत आदि इतर भाषा-प्रधान विद्यायो से सर्वथा अपरिचित थे । जैन-दीक्षा अंगीकार करके उन्होने प्राकृत भाषा तथा उसमे लिखे गये और सुलभ ऐसे जैन-परम्परा के अनेकविध गास्त्रो का पारदर्शी अवगाहन कर लिया। इस तरह उन्होने अपने जीवन मे ब्राह्मण एवं श्रमण दोनो परम्परामो को विद्याए एकरस की । यदि वे सस्कृत भापा और उसमे निवद्ध विद्यालो के पारगामी विद्वान् न होते, तो उन्हे जैन-परम्परा के प्राकृत-प्रधान विविध विषयो का थोडे समय मे ऐसा पारदर्शी जान शायद ही होता। इसी पारिगामिता के परिणामस्वरूप ही उन्होने जन-परम्परा के महत्त्व के गिने जा सके ऐसे कई अागम-ग्रन्थो के
अर सस्कृत टीकाए लिखी है २८ तथा प्राकृत भाषा मे विविध प्रकार का विपुल साहित्य भी रचा है २६ ।
हरिभद्र ने अपने माता-पिता या वंश आदि का कही पर भी उल्लेख नही किया है । जब उन्होने स्वयं अपने आपको याकिनी महत्तरा का पुत्र और वह भी धर्मपुत्र कहा, तब उनके इस छोटे-से विशेपण मे से एक विशिष्ट अर्थ फलित होता है ऐसा मैं समझता हूँ। मेरी दृष्टि से वह अर्थ यह है कि अज्ञात समय से जाति एवं धर्म के मिथ्या अभिनिवेश के कारण ब्राह्मण और श्रमण परम्परा के बीच जो एक प्रकार की खाई विछी हुई थी वह याकिनी महत्तरा के परिचय के द्वारा हरिभद्र के जीवन मे पट गई। ऐसा लगता है कि उनके जीवन पर इस घटना का इतना अधिक प्रभाव
२७ आवश्यकटीकाकी प्रगस्ति "समाप्ता चेय शिष्यहिता नामावश्यकटीका। कृति सिताम्बराचार्य - जिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोरल्पमतेराचार्यहरिभद्रस्य"
उपदेश की प्रगस्ति "नाइणिमयहरिपाए रइया एए उ धम्मपुत्तण । हरिभदायरिएण भवविरह इच्छमाणेण ॥"
पचमूत्रविवरण की प्रशस्ति "विवृत च याकिनीमहत्तरासूनु-श्रीहरिभद्राचार्य ।" २८ दशवकालिक, आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, पनवणा, प्रोपनियुक्ति, चैत्यवन्दन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, जीवाभिगम तथा पिण्डनियुक्ति ।
-धर्ममग्रहणी की प्रस्तावना, पृ १३ से १७ २६ देखो परिशिष्ट २।