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जीवन की रूपरेखा
[११ ऐसा हुआ कि एकबार वे चित्तौड के मार्ग पर से गुजर रहे थे। उस समय उपाश्रय मे से एक साध्वी द्वारा बोली जानेवाली एक गाथा उनके सुनने मे आई २५ । गाथा प्राकृत भापा मे और वह भी संक्षिप्त एव सकेतपूर्ण थी; अत. उसका मर्म उनकी समझ मे न आया । परन्तु हरिभद्र मूलतः थे जिज्ञासा की मूर्ति, इससे वे साध्वी के पास पहुँचे और उस गाथा का अर्थ जानने की अपनी इच्छा प्रदर्शित की। उस साध्वी ने अपने गुरु जिनदत्तसूरि के साथ उनका परिचय कराया। उन्होने हरिभद्र को संतोष हो इस तरह बात करके अन्त मे कहा कि यदि प्राकृत शास्त्र तथा जैन-परम्परा का पूरा-पूरा और प्रामाणिक अभ्यास करना हो तो उसके लिए जैनदीक्षा आवश्यक है। हरिभद्र तो उत्कट जिज्ञासु, स्वभाव से एकदम सरल और अपनी प्रतिज्ञा मे दृढ थे। अत उन्होने उस सूरि के पास जैन-दीक्षा अगीकार की
और साथ ही अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए अपने आपको उस साध्वी के धर्मपुत्र के रूप मे उद्घोषित किया २६ । उस साध्वी का नाम 'याकिनी' था। कोई भी पुरुष पुरुप के पास ही दीक्षा ले सकता है, अत. यद्यपि उन्होने जैन-दीक्षा तो जिनदत्तसूरि के पास ली किन्तु महत्तरा याकिनी साध्वी का धर्मऋण चुकाने के लिए
यो तो पण्डित लोग शालिवाहन शक का वर्ष समग्र भारतवर्ष मे चैत्र शुक्ला १ से गिनते है, फिर भी उत्तर मे पौणिमान्त और दक्षिण मे अमान्त मासगणना चलती है। किल्हॉर्न के almost शब्द से निर्दिष्ट अपवाद उत्तर भारत के होने चाहिए, और हरिभद्रसूरि का case भी उत्तर का है। शालिवाहन शक के मास आज भी उत्तर भारत के पडितो के पचागो मे पौरिणमान्त गिने जाते है, और फिर भी उनमे शक सवत् का प्रारम्भ चैत्र शुक्ला १ से होता है। सम्भव है कि सामान्य जनता मे भिन्न पद्धति प्रचलित हो और तदनुसार inscriptions मे भिन्न रूप से लिखा जाता हो और उद्योतनसूरि ने पण्डितो की पद्धति के अनुसार कुवलयमाला को पूर्ण करने की तिथि लिखी हो; सक्षेप मे, कुवलयमाला मे लिखी हुई तिथि मे कोई दोप मुझे नहीं दिखता। इस प्रकार शा शक ७०० चैत्र कृष्णा चतुर्दशी के दिन ई स ७७६ के मार्च की २१वी तारीख पाती है।
२५. चक्किदुग हरिपणग पणग चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ॥
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा ४२१
२६ यद्यपि स्वय हरिभद्र अथवा अन्य कोई याकिनी नाम्नी किसी महत्तरा के व्यक्तित्व के विपय मे कुछ विशेष निर्देश नहीं करते, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इस महत्तराका व्यक्तित्व, चारित्र्य, स्वभावमाधुर्य आदि अनेक विशेषतानो के कारण भव्य होना चाहिए।