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दर्शन एव योग के विकास में हरिभद्र का स्थान
[३३ इन दोनो विद्वानो का निर्देश किया है ।४२ गुणमति और स्थिरमति ने जिन छोटे-बड़े ग्रन्थो की रचना की होगी वे दार्शनिक ग्रन्थ खास करके बौद्ध दर्शन के होगे । यदि सुप्रसिद्ध बहुश्रुत विद्वान् शान्तिदेव, जैसा समझा जाता है उस तरह, सौराष्ट्र के हों तो सम्भवत. उनकी प्रवृत्ति का केन्द्र, समय की दृष्टि से विचार करने पर, वलभी क्षेत्र होगा। वलभी हो या दूसरा कोई स्थान, परन्तु शान्तिदेव ने गुजरात मे अपनी कृतिया रची हो तो ऐसा कहा जा सकता है कि उनकी सुप्रसिद्ध तीनो कृतियाँ,४३ जो कि बौद्ध दर्शन-परम्परा की है, मैत्रककालीन विशिष्ट सम्पत्ति हैं ।
अशोक के शासनकाल से लेकर वलभी के भंग तक के लगभग एक हजार वर्षों मे रचित दर्शन एव योग-विषयक ज्ञात-अज्ञात कृतियो का जब हम विचार करते है तब हमारा ध्यान मुख्य रूप से जैन कृतियाँ ही आकर्षित करती है। मगध मे रचित
और सुरक्षित तथा मथुरा मे सुसंकलित हुए जैन आगम-साहित्य की दो वाचनाएँ वलभी क्षेत्र मे ही हुई है ।४४ जो जैन आगम-साहित्य आज उपलब्ध है वह समग्र साहित्य है तो प्राकृत मे, परन्तु उसमे मुख्य विषय तो दर्शन एवं योग अर्थात् चारित्र्य का ही है। ये ग्रन्थ वलभी क्षेत्र मे संशोधित एवं सुव्यस्थित होने से उनकी मौलिक रचना का श्रेय वलभी क्षेत्र अथवा गुजरात के हिस्से मे नही आता, फिर भी वलभी क्षेत्र मे विहार करने वाले और बसने वाले अनेक धुरन्धर जैन विद्वानो द्वारा रचित दार्शनिक और योगविषयक कृतियाँ प्राकृत एवं संस्कृत मे आज भी उपलब्ध है । श्री जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण का प्राकृत विशेपावश्यकभाष्य, उस पर की स्वोपज्ञ संस्कृतवृत्तिके साथ, एक ही ऐमा प्राकर-ग्रन्थ है कि जिसमें जैन दर्शन को केन्द्र मे रखकर भारतीय दर्शनो की स्पष्ट चर्चा की गई है और जिसमे ध्यान, योग या चारित्र्य के बारे मे भी विशद चर्चा है।४५ श्रीमल्लवादिकृत नयचक्र और उस पर की श्री सिंहगणी क्षमाश्रमण की ४६ विस्तृत व्याख्या भी वैसा ही एक दार्शनिक प्राकर-ग्रन्थ है । उस मे जैन दर्शन के मुख्य सिद्धान्त नय और अनेकान्तवाद के आसपास लगभग सभी भारतीय दर्शनो के मुख्य-मुख्य मन्तव्योका तार्किक दृष्टि से गुम्फन किया गया है । इन
४२ 'मैत्रककालीन गुजरात' पृ० ३८५। ४३ वोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय और सूत्रसमुच्चय । ४४. 'वीरनिर्वाण सवत् और जैनकालगणना' पृ० ११० । ४५. 'भारतीय विद्या' ३१, पृ० १६१, तथा उन्ही का 'ध्यानशतक'।
४६ देखो 'प्रात्मानन्द प्रकाश' मे प्रकाशित मुनि श्री जम्बूविजयजी का लेख, वर्ष ४५, अक ७।