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________________ ४] समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र दो ग्रन्थोका उल्लेख तो इसलिए यहाँ किया गया है कि उसमे सौराष्ट्रने दर्शन श्रीर योग- परम्परा मे जो सिद्धि पाई है उसका कुछ श्राभास मिल सके । ४७ वलभी क्षेत्र के पश्चात् वडनगर (ग्रानन्दपुर ) और भिन्नमाल ये दो गुजरात के नगर हमारा ध्यान ग्रापित करते हैं । इसमे कोई सन्देह नही है कि वडनगर ने आठवी शताब्दी के पूर्व भी किसी-न-किसी प्रकार की साहित्य सिद्धि प्राप्त की होगी, क्योकि वह भी गिरिनगर की भाँति विद्याव्यासंगी और बुद्धिगील नागर जाति का एक केन्द्र रहा है । “ जैन-परम्परा का भी इस नगर के साथ विशिष्ट सम्बन्ध पहले ही मे रहा है, फिर भी ग्राठवी शती तक इस नगर मे दर्शन और योग परम्पराविपयक छोटी-बडी जैन या जैनेतर कृति की रचना हुई हो तो वह ग्रज्ञात है । अत श्रव हम भिन्नमाल की ोर दृष्टिपात करें । भिन्नमाल तत्कालीन गुजरात की एक राजधानी थी। इस नगर का इतिहास तो विशेष प्राचीन है, ५० परन्तु इसका गौरव बढ़ते-बढ़ते इतना बढ गया कि ह्य् एनसाग वलभी की भाँति इसका भी विस्तार मे वर्णन करता है ।" यहाँ वैदिक, वौद्ध एवं जैन इन तीनो परम्पराग्रो की अनेकविध शाखाएं विद्यमान थी । प्रत्येक शाखा के विद्वान् यहाँ आकर बसे थे और विद्याप्रवृत्ति चलाते थे । भिन्नमाल क्षेत्र मे रचित ज्योतिप, काव्य, कथा आदि अनेक विपयक ग्रन्थ-रत्न श्राज भी उपलब्ध है । इस क्षेत्र मे जाबालिपुर का भी समावेश करना चाहिए । इस क्षेत्र मे संस्कृत और प्राकृत भाषा मे रचित अनेक कृतियाँ मिलती है | इनमे ऐसी भी कृतियां हैं जिनका सम्बन्ध ४७. देखो 'विद्याकेन्द्र वलभी के विषय मे 'काव्यानुशासन' भा० २, प्रस्तावना, पृ० ७५ । ४८ देखो 'नागर' के विषय मे 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १ -२, पृ० १९६ । ४६ 'निशीथचूरिण' (गा ३३४४ ) मे इस नगरी को ग्रानन्दपुर तथा प्रक्कत्थली कहा है । देखो 'निशीथ एक अध्ययन' पृ० ७४ । ५०. देखो 'गुजरातनी राजधानीओ' पृ० ६२; 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १-२ पृ० ४४ से । ५१. देखो 'गुजरातनी राजधानीग्रो' पृ० १०२, 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १ -२, पृ० ६० । ५२ 'गुजरातनी राजवानीश्रो' पृ० १०३ । उसमे 'कुवलयमाला' की रचना भिन्नमाल मे हुई थी ऐसा लिखा है, परन्तु वह सुधारना चाहिए, क्योकि उसकी रचना जाबालिपुर मे हुई है। इसके अतिरिक्त जाबालिपुर मे जिनेश्वरसूरि ने 'ग्रप्टकप्रकरणवृत्ति' एव 'चैत्यवन्दनविवरण' की तथा बुद्धिमागराचार्य ने व्याकरण की भी रचना की है । 'कान्हडदेप्रवन्ध' श्रादि भी वहीं रचे गये है |
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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