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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
८५ एवं पुरुषार्थ के द्वारा स्वाधीन सामर्थ्य आत्मसात् करना- यह तृतीय सोपान अर्थात् सामर्थ्य योग है । इस तीसरे योग मे पहुँचनेवाला फिर शास्त्रयोग अथवा परावलम्बन की अपेक्षा नही रखता। इसका अर्थ यह नही है कि शास्त्रयोग उपयोगी नही है। इसका अर्थ इतना ही है कि वह सामर्थ्य योग की भाति अतीन्द्रिय आध्यात्मिक वस्तुओं की प्रतीति पूर्णतया और विशेष रूप से नहीं करा सकता, परन्तु वैसे सामर्थ्य योग मे प्रवेश पाने की प्रारम्भिक तैयारी के समय उसका भी उसकी निश्चित मर्यादा मे अधिकारीविशेष के लिए उपयोग है ही। श्री अरविन्द ने Synthesis of Yoga नामक अपनी पुस्तक के Four Aids नाम के प्रथम प्रकरण मे 'शब्दब्रह्माऽतिवर्तते' की जो बात कही है और जिसका महाभारत एवं उपनिषद् मे भी निर्देश है, वही बात हरिभद्र ने 'सामर्थ्य योग' शब्द से सूचित की है।
___ यह हुई संक्षिप्त रूपरेखा । परन्तु हरिभद्र ने इस रूपरेखा का विशेष विस्तार आठ दृष्टि के निरूपण के द्वारा किया है । दृष्टि अर्थात् तत्त्वलक्षी बोध । ऐसा बोध एकाएक पूर्ण रूप से शायद ही किसी व्यक्ति में प्रकट होता हो । पूर्ण कला पर पहुँचने से पूर्व उसे असंख्य भूमिकाओं मे से गुजरना पड़ता है। इनमे से अन्तिम भूमिका का परादृष्टि के नाम से निर्देश करके और इसके पहले की असंख्य भूमिकाओं को सात भागो मे विभक्त करके उन्होने उनका सात दृष्टि के रूप मे वर्णन किया है । इन आठ दृष्टियों में से भी पहली चार तो एक तरह से भोग और योग की सीमा जैसी हैं, जब कि अन्तिम चार योग की पक्की नीव जमने के बाद की हैं। पहली चार का निर्देश उन्होने 'अवेद्यसंवेद्य' पद से किया है, जब कि दूसरी चार का उल्लेख 'वेद्यसंवेद्य' पद से किया है ।'२ हरिभद्र कहते हैं कि योगतत्त्व के मूल सिद्धान्त रूप जो चेतन के स्वतंत्र अस्तित्व आदि तत्त्व हैं वे अतीन्द्रिय है। इनका अटल निश्चय मात्र शास्त्रश्रवण जैसे उपायो से भी सुसाध्य नहीं है। इसके लिए साधक को सत्समागम, शास्त्रश्रवण जैसे मार्गों के अतिरिक्त स्वयं ऊह या गहरा मनन करना आवश्यक है। जब तक उन अतीन्द्रिय तत्त्वो की पक्की प्रतीति न हो, तब तक साधक, योग की दिशा मे हो तो भी, वेद्यसंवेद्य पद को न जानने से अवेद्यसंवेद्य पद की भूमिका मे है, परन्तु जब उसे अपने स्वतंत्र चैतन्य आदि अतीन्द्रिय तत्त्वों की अक्षोभ्य प्रतीति होती है तब वह वेद्यसंवेद्य पद की भूमिका मे आता है। इस प्रकार उन्होने योग की पक्व भूमिका तथा उसके पहले की अपक्व अथवा अस्थिर भूमिका का निरूपण तो किया, परन्तु उनके समक्ष मूल प्रश्न तो यह है कि भोगाभिमुखता से पराड्मुख होने की प्रारम्भिक स्थिति से लेकर - १२. 'योगदृष्टिसमुच्चय' श्लोक ७० की टीका ।