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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र उसके विकास की अगली सभी भूमिकामो के तारतम्य का मूल कारण क्या है ? इन कारणो का निरूपण ही योग-दृष्टियो के निरूपण का हार्द है ।
___शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास के कारण चेतन अपने सहज समत्वकेन्द्र का परित्याग करता है और वह वैसे जीवनोपयोगी अन्य पदार्थों में अपने अस्तित्व का आरोपण करने लगता है । यह उसका स्वयं अपने बारे में गोह या अज्ञान है। यह अज्ञान ही उसे समत्व-केन्द्र मे से च्युत करके इतर परिमित वस्तुप्रो मे रस लेने वाला बना देता है । यह रस ही राग-द्वेप जैसे क्लेशो का प्रेरक तत्त्व है। इस तरह चेतन या चित्त का वृत्तिचक्र अज्ञान एवं क्लेशो के आवरण से इतना अधिक प्रावृत एवं अवरुद्ध हो जाता है कि उसके कारण जीवन प्रवाह-पतित ही बना रहता है । अनेक ज्ञात-अज्ञात वलो से जब इस अनुस्रोतोवृत्ति का भेदन होता है तब चेतन समत्वकेन्द्र की ओर अभिमुख होता है । जितने परिमाण मे वह समत्व-केन्द्र की ओर प्रगति करता है उतने परिमाण मे उसका क्लेशमल क्षीण होता जाता है, और जैसे-जैसे क्लेश-मल क्षीण होता जाता है वैसे-वैसे वह अज्ञान को भी दुर्बल बनाता जाता है। यह हुई प्रतिस्रोतोवृत्ति । अज्ञान, अविद्या अथवा मोह, जिसे ज्ञेयावरण भी कहते हैं, वस्तुत. चेतनगत समत्व-केन्द्र को ही आवृत करता है, जब कि उसमे से पैदा होनेवाला क्लेशचक्र बाह्य वस्तुप्रो मे ही प्रवृत्त रहता है । अज्ञान एवं उससे पोपित क्लेशचक्रका वढता जानेवाला ह्रास- यही ऊपर सूचित भूमिकाओ के तारतम्य का कारण है । हरिभद्र इसी को जैन परिभाषा में योग्यताभेद अथवा क्षयोपशमविशेप कहते हैं । ऐसे योग्यताभेदको समझाने के लिए उन्होने कई दृष्टान्त देकर यह बतलाया है कि एक ही दृश्यको एक ही द्रष्टा परिस्थितिवश, स्वातंत्र्य-पारतंत्र्यवश, उम्रकी भिन्नता के कारण अथवा इन्द्रियवैगुण्यकी वजह से किस प्रकार अनेकरूप देखता है । हरिभद्र की यह दृष्टान्त-योजना बाह्य इन्द्रिय के प्रदेश तक सीमित है, परन्तु उसके द्वारा उन्होने आध्यात्मिक ज्ञान एवं अज्ञान का तारतम्य कैसे होता है यह सूचित किया है।
हरिभद्रके ये दृष्टान्त सब समझ सके ऐसे और रोचक भी हैं । कोई द्रष्टा समीपस्थ दृश्य पदार्थ को मेघाच्छन्न अथवा मेघशून्य रात्रि मे देखे, बादल से घिरे हुए १३ 'योगदृष्टिसमुच्चय' मे
समेघामेघराश्यादौ सग्रहाद्यर्भकादिवत् ।
ओघदृष्टिरिह ज्ञेया मिथ्यादृष्टीतराश्रया ॥१४॥ इस प्रकार हरिभद्र ने दर्शनभेद समझाने के लिए आगम, भाष्य, चूणि आदि जैन“शास्त्रीय परम्परा मे प्रसिद्ध मेघावृत और मेघानावृत चन्द्र-सूर्य-के दृष्टान्तोका विस्तार करके मित्रा आदि आठ दृष्टियो का निरूपण किया है। बौद्ध परम्परामे इसी तरह मेघावृत और