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________________ योग-परम्परा मे हरिभद्र की विशेषता अथवा बादलरहित दिन के समय, देखे, चित्तभ्रम की स्थिति मे अथवा उससे मुक्त दशा मे देखे, बाल्य अथवा वैसी अपक्व आयु मे या परिपक्वावस्था मे देखे, वही द्रष्टा पीलिया या वैसे किसी रोग से ग्रस्न नेत्रों से अथवा नीरोग नेत्रो से देखे, तो उस दृश्य के एवं द्रष्टा के एक होने पर भी उसके दर्शन मे अनेकविध तारतम्य होता है । इसी प्रकार जीव वही का वही होता है, और उसका जीवन या प्रवृत्तिक्षेत्र भी वही का वही होता है, फिर भी उस पर के ज्ञेयावरण एवं क्लेशावरण की तीव्रता-मन्दता के तारतम्य के कारण उसके आन्तरिक दर्शन मे तारतम्य आता है और वही तारतम्य, मतभेद अथवा विचारभेद का बीज होने से अन्त मे दर्शनभेद मे परिणत होता है। हरिभद्र कहते हैं कि ऐसा दर्शनभेद अनिवार्य है। इस अनिवार्यता के होते हुए भी उसमे चार भूमिकामो तक दृढ अभिनिवेश रहता है, जिसके फलस्वरूप विवाद एवं कुतर्क चला करते है; परन्तु पाँचवी भूमिका या स्थिरा दृष्टि से लेकर आगे की भूमिकाओं मे मेघानावृत चंद्र-सूर्य के दृष्टान्त द्वारा क्लिष्ट-अक्लिष्ट प्रज्ञारूप आठ दृष्टियो का निरूपण आता है, जो वसुबन्धुके सभाष्य 'अभिधर्मकोष' तथा अज्ञातकर्तृक 'अभिधर्मदीप' एवं उसकी विभापाप्रभा नाम की वृत्ति मे है । यह तुलना आध्यात्मिक चिन्तन के पुरातन स्तर की सूचक है । - जैन एव बौद्ध ग्रन्थो के सूचक उद्धरण नीचे दिये जाते है अक्खरस्स प्रणतो भागो निच्चुग्धाडिलो, जइ- पुण सो वि आवरिज्जा तेण जीवो अजीवत्तण पाविज्जा । सुठु वि मेहसमुदए होइ पभा चदसूराण । -नन्दीसूत्र सू ४३ (मलयगिरि-टीका वाली प्रावृत्ति, पृ १६५)। सो पुण सव्वजहन्नो चेयण्ण नावरिज्जइ कयाइ । उक्कोसावरणम्मि वि जलयच्छन्नक्कभासो व्व ॥४६८।। -विशेषावश्यकभाष्य । इनके अतिरिक्त देखो 'प्रावश्यकचूरिण' पत्र ३० व । 'अभिधर्मकोष' १ ४१ के भाष्य मे":"समेघामेघरात्रिंदिवरूपदर्शनवत् क्लिष्टाक्लिष्टलौकिकीशैक्ष्यशक्षीभिदृ ष्टिभिर्धर्मदर्शनम् । 'अभिधर्मदीप' १४३ एव उस की विभाषाप्रभा नामकी टीका मे समेघामेघराश्यहोर्दश्य चक्षुर्यथेक्षते । क्लिष्टाविलष्टदृशौ तद्वच्छैक्षाशैक्षे च पश्यत ॥ यथा समेघाया तिमिरपटलावगुण्ठितचन्द्रनक्षत्रचक्रप्राया रजन्या रूपाणि दृश्यन्ते तथा क्लिष्टा पञ्चदण्टयो ज्ञेय पश्यन्ति । यथा तु विगतरजासि निशाकरकिरणाशुकावगुण्ठिताया त्रियामाया रूपाणि दृश्यन्ते, तथा लौकिकी सम्यग्दृष्टि पश्यति । यथा तु मेघपटलावगुण्ठिते दिवाकरकिरणानुद्भासिते दिवसे रूपाणि दृश्यन्ते, तद्वच्छैक्षी दृष्टि पश्यति । यथा तु द्रवकनकरमावसेकपिञ्जरदिनकरकिरणप्रोत्सारिततिमिरसचये दिवसे चक्षुप्मतो देवदत्तस्य रुप चक्षुरीक्षते, तथा बुद्धानामर्हता प्रज्ञाचक्षुरविद्याक्लेशोपक्लेशमलदूपिकातिमिरपटलवर्जित ज्ञेय पश्यतीति ।
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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