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________________ ६२] समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र ऐतिहासिक एव वर्तमान युग के अनेक साधको के जीवन के साथ करते है, तब इतना तो मालूम पडता है कि महादेव के पौराणिक जीवन के साथ संकलित योगचर्या भारतीय जीवन की प्राचीनतम आध्यात्मिक सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति का विकास किस-किस तरह हुआ यह अब हम संक्षेप में देखे । जिन-जिन क्रियाओ, प्राचारो और अनुष्ठानो से असाधारण प्रोज, बल अथवा शक्ति के प्राकट्य का सम्भव माना जाता है वे सभी क्रियाएं, प्राचार और अनुष्ठान तप के नाम से व्यवहृत होते आये है । ऐसा ज्ञात होता है कि तप का स्वरूप स्थूल मे से सूक्ष्म की अोर क्रमश विकसित होता गया है और जब तप का सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म अर्थ विकसित हुआ और विरल साधको के जीवन मे साकार हुआ, उस समय भी उसके स्थूल और बाह्य अनेक स्वरूप समाज एवं धर्म-सम्प्रदायो में प्रचलित रहे । तप के स्थूल और बाह्य स्वरूप मे कम से कम नीचे लिखी बातो का समावेश होता ही है - (१) गृहवास का परित्याग करके वन, गुफा, श्मशान अथवा सुनसान जैसे विविक्त स्थानो मे रहना, (२) सामाजिक वेशभूषा का त्यागे, जिसके कारण या तो नग्नत्व और यदि वस्त्र धारण किये जाय तो भी वे जीर्ण कन्याप्राय और अत्यल्प; (३) या तो जटाधारण या फिर सर्वथा मुण्डत्व, (४) अनशन व्रत का आग्रह और अशन करना हो तो उसकी भी मात्रा हो सके उतनी कम और वह भी नीरस, (५) नाना प्रकार के देहदमन। इन और इनके जैसी दूसरी अनेकविध चर्यानो का आचरण तत्कालीन तपस्वी करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका लक्ष्य मुख्यतया मन को २ तपश्चर्याके ये मुद्दे जिसके आधार पर फलित होते है, उसके लिए अधोनिदिष्ट साहित्य उपयोगी होगा - 'औपपातिकसूत्र' गत तपवर्णन जिसमे उसके ३५४ भेद बतलाये है, तथा परिव्राजक एव तापसोका वर्णन, 'भगवतीसूत्र' गत 'शिवतापस' शतक ११, उद्देश ६ तथा 'तामली तापस' शतक ३, उद्देश्य १, भगवान महावीर की तपश्चर्याका 'आचाराग' गत वर्णन, अध्याय ६ उपधानश्रुत, बुद्ध की तपश्चर्याका वर्णन · 'मज्झिमनिकाय' अरियपरियेसनसुत्त, महासच्चकसुत्त । ___ 'महाभारत' ( चित्रशाला सस्करण) अनुशासन पर्व १४१ ८६-६० में चार प्रकार के भिक्षुप्रोका वर्णन आता है, १४१. ६५-११५ मे वानप्रस्थोका वर्णन है। वैसा ही वर्णन १४२ ४-३३ मे है। पचाग्नितपका उल्लेख १४२-६ मे है, विविध मरणोका उल्लेख १४२ ४४-५६ मे तथा तापसो का वर्णन १४२ ३४ मे है। 'रामायण' मे शम्बूक तापनकी कथा काण्ड ७, अध्याय ६५-६ मे आती है। 'श्रीमद्भागवत' गत ऋपभचरित, स्कन्ध ५, अध्याय ५।
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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