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संचालकीय निवेदन
राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला का प्रारंभ करते समय मन मे यह भावना थी कि राजस्थान की विविधरंगी ज्ञानश्री का दर्शन जिज्ञासु को कराना । अबतक जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए है, उनमे जो वैविध्य है वह किसी भी पाठक से छिपा नही है। हमारा यह प्रयत्न रहा है कि राजस्थान मे जो सांस्कृतिक सामग्री छिपी हुई पड़ी है उसको प्रकाश मे लाना । इस दृष्टि से हमने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और प्राचीन राजस्थानी भाषा के ननेक विषय के ग्रन्थों का प्रकाशन किया है । और, अब राजस्थान की साहित्यिक श्री के निर्माताओ मे अग्रणी आचार्य हरिभद्र के जीवन की तथा उनके दर्शन और योग विषयक साहित्य मे योगदान की विशद् व्याख्या करने वाला पंडितप्रवर श्री सुखलालजी संघवी का 'समदर्शी श्राचार्य हरिभद्र' नामक ग्रंथ प्रकाशित करते हुए हमे परम प्रमोद का अनुभव हो रहा है |
श्राचार्य हरिभद्र का बाल्यकाल अाधुनिक चित्तौड के पास स्थित प्राचीन भग्नावशिष्ट माध्यमिका नगरी मे बीता था । जैन दीक्षा लेने के बाद तो समग्र राजस्थान और गुजरात मे उन्होने विचरण किया होगा । आचार्य हरिभद्र ने किस विषय मे नही लिखा ? कथा - उपदेश से लेकर तत्कालीन विकसित भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ उन्होने लिखे । कथाकार, धर्मोपदेशक, वादी, योगी और समदर्शी तत्त्वचिन्तक के रूप मे वे अपने साहित्य के माध्यम से हमारे समक्ष उपस्थित होते है । उनके इस बहुदर्शी जीवन मे से समत्व को प्रदर्शित करनेवाले योग और दर्शन विषयक ग्रन्थो का अध्ययन करके पंडितप्रवर श्री सुखलालजी ने बंबई यूनिवर्सिटी
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गुजराती भाषा मे जो व्याख्यान दिये थे, प्रस्तुत ग्रंथ उनका हिन्दी अनुवाद है । इसमे आचार्य हरिभद्र की योग और दर्शन विषयक साहित्य मे जो अपूर्व देन है उसकी विशद व्याख्या की गई है । आचार्य हरिभद्र वैदिक, बौद्ध और जैन तीनो परंपराश्रो के योगविषयक साहित्य से पूर्ण परिचित थे, किन्तु साहित्यिक परिचय होना एक बात है। और योग का अनुभव दूसरी बात । श्राचार्य हरिभद्र के योगविषयक ग्रंथो मे जिस समन्वयदृष्टि का दर्शन हमे होता है वह केवल श्रध्ययन का परिणाम न होकर अनुभवजन्य भी है । यही कारण है कि वे, परिभाषा का भेद होते हुए भी, विविध योगमार्गों मे प्रभेद का दर्शन स्वयं कर सके और भावी पीढी के लिये अपने अनुभव का निचोड अपने योगविषयक ग्रंथो मे निबद्ध भी कर सके । प्राचार्य हरिभद्र की तत्त्वचितक