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समदर्शी आचार्य हरिभद्र धर्म के कारण दीए आदि की सुविधा उन्हे सुलभ ही नही थी, परन्तु लल्लिग ने प्राप्य उल्लेख के अनुसार, एक देदीप्यमान हीरा उनके पास उपाश्रम मे रक्खा था । वस्तुत वह हीरा होगा या दूसरी कोई वस्तु, परन्तु वह प्रकाश दे और दीए का काम दे ऐसी कोई निर्दोष वस्तु होनी चाहिए। वे उस प्रकाश का उपयोग करके दीवार या तख्ती के ऊपर प्राथमिक मसौदा लिख लेते। इस कार्य मे लल्लिग ने जो सुविधा कर दी और हरिभद्र ने उसका असाधारण उपयोग किया वह उत्तरकालीन हेमचन्द्रसूरि और सिद्धराज एव कुमारपाल के सम्बन्ध का सस्मरण कराता है ३५ ।
हरिभद्रसूरि इस प्रकार छोटे-बड़े ग्रथो की रचना करते और अन्त मे 'भवविरह' पद जोड देते । कहावलीकार आदि ने यदि लल्लिग के इस वृत्तान्त का उल्लेख न किया होता, तो हरिभद्रसूरि की ग्रन्थ-रचना का तप कैसा था इसका पता हमे न चलता और लल्लिग साधुओ की भाति दूसरे याचको को सतुष्ट कर आतिथ्यधर्म की प्राचीन परम्परा का किस तरह पालन एवं पोषण करता था इसकी जानकारी भी हमे उपलब्ध न होती।
पोरवाल जाति की स्थापना हरिभद्र ने मेवाड मे पोरवाल वंश की स्थापना करके उन्हे जैन-परम्परा मे । दाखिल किया ऐसी अनुश्रुति ज्ञातियो का इतिहास लिखनेवालो ने नोट की है ३६ |
३४ कहावली “समप्पिय च सूरिणो लल्लिगेण पुन्वागयरयणाणं मज्झाओ जच्चरयण, तदुज्जोएण य रयणीए विढप्पेइ सूरि भित्तिपट्ठयाइसु गथे ।"
३५ देखो 'प्रभावकचरित्र' गत २२वां हेमचन्द्रसूरिप्रवन्ध, काव्यानुशासन भाग २, प्रस्तावना पृ २७३ से।
३६ प श्री कल्याणविजयजी 'धर्मसग्रहणी' प्रस्तावना पृ ७ ।