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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
१०३ शून्यवाद की दृष्टि से स्वकल्पना के बल पर करता था वह निरुत्तर हो गया और कमलशील की जय हुई।६४
कमलशील बोधिसत्त्व के रूप मे प्रतिष्ठित शान्तरक्षित के शिष्य और विशिष्ट व्याख्याकार थे। योगाचार परम्परा मे विज्ञानवाद का विकास होने पर जो वज्रयान नाम की शाखा निकली थी उसके ये दोनों गुरु-शिप्य समर्थक थे। वे मानते थे कि मुक्ति दशा में विशुद्ध क्षणिक ज्ञान-सन्तति चालू रहती ही है; ज्ञान-सन्तति का लोप हो ही नही सकता। यह उनका महासुखवादी सिद्धान्त है। इस जगह कमलशील की यह कहानी कहने का उद्देश्य इतना ही है कि हरिभद्र और ये विज्ञानवादी इस बारे मे सर्वथा एकमत है कि मुक्ति अथवा महासुख अवस्था मे ज्ञानधारा चालू रहती ही है । हरिभद्र इस ज्ञानधारा को स्थिर आत्मद्रव्य मे घटाते है,६५ तो विज्ञानवादी वैसे स्थिर द्रव्य को माने विना घटाते हैं;६६ परन्तु ये दोनो विचार इतना तो स्थापित करते ही हैं कि पुरुप, चेतन, आत्मा या ब्रह्म यदि चैतन्यस्वरूप हो तो वह सर्वथा ज्ञानधारावर्जित हो ही नहीं सकता।
(१०) हरिभद्रने योगबिन्दुमें जैन दृष्टि से सर्वज्ञत्व का स्वरूप स्थापित किया है और कुमारिल, धर्मकीर्ति जैसो के साक्षात् सर्वज्ञत्व के विरोधी विचारो का प्रतिवाद भी किया है।६० यहा हरिभद्र के सामने ऐसा प्रश्न उठाया जा सकता है कि जब वे जैन सम्मत विशेप सर्वज्ञत्व की स्थापना करते है, तब वे एक मत-विशेप का पुरस्कार करते हैं, तो इसे एक अभिनिवेश क्यो नही कहा जा सकता ? स्वयं उन्होने ही योगदृष्टिसमुच्चयमे सर्वज्ञविशेष की मान्यता को अभिनिवेश मानकर छोड दिया है और सामान्य-सर्वज्ञत्व का ही पुरस्कार करके सभी आध्यात्मिक तत्त्वज्ञो को सर्वज्ञ माना है। तो फिर क्या यह विरोध नही है ? मुझे विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इसमे विरोध जैसा कोई तत्व नही है । जिस प्रकार पतंजलि ने योगसूत्र के चौथे पाद मे अपनी तात्त्विक मान्यता से अलग पडनेवाली विज्ञानवादी की मान्यता की अलोचना की है, जिस प्रकार योगवाशिष्ठ आदि मे ब्रह्माद्वैतका स्थापन और दूसरी मान्यताप्रो का
६४. देखो 'तत्त्वसग्रह' की प्रस्तावना पृ १६८ । ६५ देखो योगविन्दु ४२७ से। ६६ प्रभास्वरमिद चित्त तत्त्वदर्शनसात्मकम् । प्रकृत्यैव स्थितं यस्मान्मलास्त्वागन्तवो मता.॥
-तत्त्वसग्रह, ३४३५ ६७. देखो योगविन्दु ४२७ से।