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व्याख्यान तीसरा दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्रकी विशेषता
तीसरे व्याख्यान का विपय है . दार्शनिक परम्परा मे हरिभद्र द्वारा दाखिल की गई नवीन दृष्टि । दूसरे व्याख्यान के अन्त मे जिन पांच गुणो अथवा विशिष्टतात्री का सूचन किया है उनमे से प्रारम्भ के तीन गुण उनके दो दार्गनिक ग्रन्धो मे बहुत ही स्पष्ट रूप से व्यक्त हुए हैं। इन दो ग्रन्यो मे से पहला है पड्दर्शनसमुच्चय और दूसरा है गास्त्रवार्तासमुच्चय ।
दर्शन का सच्चा भाव तो है . वस्तुमात्र के यथार्थ स्वरूप का अवगाहन अयवा उसके लिए प्रयत्न करना । सत्य का स्वरूप नि सीम और अनन्तविध है । एक ही व्यक्ति को भी वह बहुत बार कालक्रम से विविध रूप मे भासित होता है,
और अनेक व्यक्तियो मे भी सत्य, देश और काल-भेद ने, भिन्न-भिन्न रूप मे आविर्भूत होता है। इससे किसी एक व्यक्ति का सत्य-दर्शन परिपूर्ण एव अन्तिम तथा अन्य व्यक्ति द्वारा देखे गये सत्याग मे सर्वथा निरपेक्ष नही हो सकता। अतएव सत्य की पूर्ण कला के समीप पहुँचने का राजमार्ग तो यह है कि प्रत्येक सत्य-जिज्ञासु इतर व्यक्ति के दर्शन को समादर एवं सहानुभूति से समझने का प्रयत्ल करे। वस्तुस्थिति ऐसी होनी चाहिए, परन्तु मानव-चित्त मे सत्य की जिज्ञासा के साथ ही कितने ही मल भी विद्यमान होते है । वसे मलो की तीव्रता अथवा मन्दता के कारण जिजासु अधिक मध्यस्थता वारण नही कर सकता और पर-मत अथवा पर-दर्शन के साथ संघर्ष मे पाता है । इस प्रकार एक ओर विशिष्ट व्यक्ति मत-विरोध या मत-विसवाद दूर करने का प्रयत्न करता है, तो दूसरी ओर अनेक साधारण व्यक्ति मतभेद को क्लंगभूमि में परिवर्तित कर देते है। ऐसा संवाद-विसंवाद का चक्र सभी धर्म-पंथो में किसी-न-किसी रूप मे पतित देखा जाता है।
इसीलिए प्रियदर्शी अशोक ने अपने धर्मशासनो मे ब्राह्मण एव श्रमण परम्परा में समाविष्ट होने वाले सभी छोटे-बड़े पंथो को उहिष्ट करके कहा है कि सभी धार्मिक अापस-आपस मे सवादपूर्वक बर्ताव करे। जो पर-पापण्ड या पर-धर्म या पर दर्शन की निन्दा करता है वह वस्तुत. स्व-पापण्ड अर्थात् स्वधर्म की ही निन्दा करता है।'
१ देखो दूसरे व्यात्यान की पादटीप न० ३२ मे उद्धृत अशोक का वारहवा गासन।