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________________ योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता उनका निरूपण किया है ।५८ इसी के साथ उन्होने साख्य-योग परम्परा की सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात इन दो भूमिकाओ की उक्त पाँच भूमिकाप्रो के साथ तुलना भी की है। वे कहते हैं कि इन पांच में से प्रारम्भ की चार सम्प्रज्ञात है और अन्तिम असम्प्रज्ञात है । सम्प्रज्ञात भूमिका तक मनोव्यापार चलता है, परन्तु असम्प्रज्ञात अवस्था५६ प्राप्त होते ही सबीज, क्लेशवृत्ति का नाश होता है। इसी को निर्बीज समाधि कहते हैं । साख्यानुसारी योगशास्त्र की इस मान्यता के साथ हरिभद्र ने तुलना तो की है, परन्तु जैन और साख्य तत्त्वज्ञान का मूलगत जो भेद है तथा उसी को लेकर वृत्तिसंक्षय का जो अर्थ जैन-परम्परा के साथ संगत हो सकता है वह भी उन्होने बतलाया है। पतंजलि चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते है ।' चित्तवृत्ति क्लिष्ट भी होती है और अक्लिष्ट भी । अज्ञान एवं तृष्णा जैसे क्लेशो अयवा मलों के निवारण के बारे मे तो किसी का मतभेद है ही नही, परन्तु प्रश्न यह है कि क्लेश निर्मूल हो और चित्त मे ज्ञान, प्रेम आदि अक्लिष्ट वृत्तियों का चक्र चले, तो क्या उसका भी निरोध करना ? इसका उत्तर साख्य, न्याय, वैशेषिक, अद्वैत, वेदान्ती तथा कई बौद्धो ने प्राय. एकजैसा ही दिया है । वह उत्तर है । विदेह मुक्ति के समय शरीर की भांति चित्त या मन का भी सर्वथा विसर्जन । यदि चित्त अथवा मन का ही विलय हो, तो फिर अक्लिष्ट वृत्ति पैदा ही किसमे हो ? इससे मुक्त-दशा मे विशुद्ध ज्ञान या विशुद्ध आनन्द जैसी वृत्तियो के लिए भी अवकाश है ही नही । ६२ हरिभद्र इस मान्यता से अलग पडकर ऐसा स्थापित करते है कि मुक्त दशा मे अक्लिष्ट वृत्तियों का भी निरोध होता है, इसका अर्थ सिर्फ इतना ही हो सकता है कि मानसिक कल्पनाओं और व्यापारो का देह व्यापार की भांति विलय, नही कि चेतन की सहज एवं निरावरण ज्ञान, प्रेम, आनन्द प्रादि वृत्तियो का विलय । ३ हरिभद्र अपना मत स्थापित करते समय जैनपरम्परा-सम्मत आत्मा का परिणामिनित्यत्व युक्तिपूर्वक सिद्ध करते है तथा पुरुष अथवा आत्मा की कूटस्थ नित्यता का एवं बौद्ध-सम्मत क्षणिक चित्तसन्तति का प्रतिवाद करते हैं। ५८. देखो 'योगविन्दु' श्लोक ३१ । ५६ वही, श्लोक ४१६-२३, तथा योगदर्शनकी यशोविजयजीकी व्याख्या १.१७-८ । ६० देखो 'योगविन्दु' श्लोक ४०५-१५ । ६१ देखो 'योगसूत्र' १.२॥ ६२ देखो 'योगविन्दु' श्लोक ४२७ से। ६३. वही, श्लोक ४५६ ।
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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